फेरववानी बुद्धि छे ते पर्यायमूढ मिथ्याद्रष्टि छे, तेने पर्यायनी स्वतंत्रतानी प्रतीत नथी, तेम ज द्रव्य–गुणनी पण
प्रतीत नथी. जगतमां अनंता जीवो जुदा जुदा छे; तेमना द्रव्य–गुण सरखां होवा छतां पर्यायो एकसरखी थती
नथी, पर्यायमां विचित्रता छे; आवो ज वस्तुनो पर्यायस्वभाव छे. तेने धर्मी जाणे छे अने तेने ज वस्तुस्वरूपनुं
यथार्थ चिंतन होय छे. द्रव्य–गुण एकसरखा होवा छतां पर्यायना प्रकारमां फेर केम?–एवो संदेह के विस्मयता
ज्ञानीने नथी; विचित्रताना काळे विचित्रता छे; त्यां पोताना एकरूप स्वभाव उपर द्रष्टि राखीने धर्मी ते
विचित्रताने जाणे छे.
आत्मानी प्रतीत थया विना रहे नहि, अने ज्ञानस्वभावनी कबूलात वगर एकपण वातनो यथार्थ निर्णय
थाय नहि. तीर्थंकर, पुण्य, समवसरण वगेरे एकपण तत्त्वने यथार्थ कबूलवा जतां आखी वस्तुस्थिति ऊभी
थई जाय छे.
पूर्वदिशामां महाविदेहक्षेत्रमां तीर्थंकरपणे साक्षात् बिराजे छे, त्यां अत्यारे समवसरण छे, संत मुनिओना टोळां
त्यां विचरे छे; त्यां भगवाननी दिव्यवाणीमां एकसाथे बार अंगनो धोध आवे छे, एक समयमां पूर्णता आवे
छे, ने बार सभामां समजनारा जीवो पोतपोतानी योग्यता प्रमाणे समजे छे. अत्यारे अहीं पण कहेनारना
अभिप्रायनी जेटली गंभीरता होय ते प्रमाणे कांई बधा सांभळनारा सरखुं समजता नथी पण सौ पोतपोताना
क्षयोपशमभावनी योग्यता प्रमाणे समजे छे. सीमंधर भगवाननुं जे समवसरण छे ते तो महाअलौकिक छे,
ईंद्रोने रचेलुं छे, ने त्यां तो गणधर वगेरे बिराजमान छे, अहीं तो फक्त तेनो नमूनो छे.
समवसरणमां ईच्छा विना तीर्थंकर भगवाननो दिव्यध्वनि छूटे छे, ने ते उपदेश झीलनारा गणधरादि जीवो त्यां
होय छे.–आम बधानी अस्ति कबूले तो ज समवसरणने मानी शके.
पाळता होय छतां तेने तीर्थंकरनामकर्म न बंधाय, अने गृहवासमां रहेला श्रेणिक जेवा अविरती सम्यग्द्रष्टिने
पण तीर्थंकरनामकर्म बंधाई जाय. जुओ तो खरा, जीवोना परिणामनी लायकात! कोई जीव तो आत्मानुं भान
करीने यथार्थ चारित्रदशा प्रगट करीने मुनि थाय छे, हजारो वर्ष आत्माना ज्ञान–ध्यानमां रहे छे छतां तेने
तीर्थंकरनामकर्म नथी बंधातुं; ने चोथा गुणस्थाने कोई सम्यग्द्रष्टि जीवने पण तीर्थंकरनामकर्म बंधाई जाय छे.
त्यां मुनिने एम शंका नथी पडती के ‘अरे! आ अविरति सम्यग्द्रष्टिने तीर्थंकरनामकर्म बंधायुं ने मने
चारित्रदशा होवा छतां मारे तीर्थंकरनामकर्म केम न बंधायुं? शुं मारा चारित्रमां कांई खामी हशे?’ मुनिने तो
भान छे के मारा वीतरागी चारित्रनुं फळ बहारमां न आवे. चारित्रना फळमां तो केवळज्ञान थईने मोक्षदशा
प्रगटे. तीर्थंकरनामकर्म तो रागनुं फळ छे. आत्माना चारित्रना फळमां तो अंदरमां शांति आवे. शुं चारित्रथी
कांई कर्म बंधाय? चारित्र तो धर्म छे, तेनाथी बंधन थाय नहि अने जे भावथी बंधन थाय तेने धर्म कहेवाय
नहि. सम्यग्द्रष्टिने रागथी तीर्थंकरनामकर्म बंधाय छे, त्यां तेने तेनी भावना नथी ने ते रागने धर्म मानता
नथी. जुओ, आ संसारभावना!
‘संसारभावना’ छे. अंर्ततत्त्वना भान विना बार भावना यथार्थ होती नथी.