प्रकारनां परिणाम नथी आवता; जेनामां ते ते जातनी लायकात होय तेने ज तेवा परिणाम थाय छे. कोईक
सम्यग्द्रष्टिने पण अनादि–सांत संसारमां तेवी जातना परिणाम कदी आवता नथी. अरे, संसारमां जेमणे कदी
स्वर्गनो के नरकनो एकपण भव कर्यो न होय, अनादि निगोदमांथी नीकळी मनुष्य थईने मोक्ष पामी जाय–एवा
जीवो पण होय छे. जुओ तो खरा विचित्रता! कोई जीवो तो अनंतवार स्वर्गना ने नरकना अवतार करी
चूकया ने कोई जीवने अनादि–सांत संसारमां स्वर्ग के नरकनो भव थाय तेवा परिणाम ज न आव्या. एक जीव
तो चक्रवर्ती के तीर्थंकर थईने मोक्ष पामे छे ने बीजो जीव साधारण राजा पण थतो नथी, साधारण मनुष्य थईने
ज मोक्ष पामे छे. जीवोना ते ते जातना विकल्पोनी विचित्रता छे. धर्मीने आवी विचित्रता देखीने आश्चर्य थतुं
नथी, केम के ते एकली विचित्रताने ज नथी देखतो, पण एकरूप चिदानंद स्वभावनी द्रष्टिने मुख्य राखीने
पर्यायनी विचित्रतानुं ज्ञान करे छे. आवा सम्यग्द्रष्टि धर्मात्माने ज संसारना बधा पडखाओनुं भान होय छे ने
तेने ज ‘संसारभावना’ होय छे, एकली पर्यायबुद्धिवाळा अज्ञानी जीवने ‘संसारभावना’ होती नथी, स्वभाव
शुं अने संसार शुं–एनुं ज तेने भान नथी. अज्ञानीने पोताना धु्रवस्वभावनुं भान नहि होवाथी ते तो
पर्यायोनी विचित्रताने देखीने राग–द्वेष अने विस्मयतामां ज अटकी जाय छे, ने ज्ञानीने तो स्वभावनुं भान
होवाथी पर्यायबुद्धि होती नथी, एटले पर्यायोनी विचित्रता देखीने तेने विस्मयता थती नथी पण क्षणे क्षणे
वीतरागता वधती जाय छे.
तेनी आमां मुख्यता नथी. आवी बार भावना अज्ञानीने यथार्थ होती नथी. अखंड द्रव्य उपर जेनी द्रष्टि नथी
अने विचित्रताना परिणाम उपर ज जेनी रुचि छे तेने पर्यायनी विचित्रतामां राग–द्वेष थया विना रहेता नथी.
धर्मी जीव संसारनुं स्वरूप विचारे छे त्यां तेने पर्यायबुद्धि होती नथी, पण चिदानंद स्वभाव उपरनी द्रष्टिपूर्वक
तेने आ प्रकारना विचारनी श्रेणी चाले छे तेनुं नाम ‘संसारभावना’ छे, तेमां तेने पर्यायनी विचित्रतानुं
विस्मय थतुं नथी.
जेओ अनादिकाळथी तिर्यंच–पंचेन्द्रियपणुं पाम्या ज न होय, तेने तेवी जातना भाव ज अनादिथी कदी
आव्या न होय, ने निगोदमांथी नीकळी सीधो मनुष्य थई मोक्ष पामी जाय; तथा कोई जीवो एवा छे के बे
इन्द्रियथी पंचेन्द्रिय तिर्यंच सुधीना अनंत भवो करी चूकया होय, सातमी नरकथी मांडीने नवमी ग्रैवेयक
सुधीना अनंत भव थई गया होय एवा परिणाम तेने आवे.–आवी आ संसारनी विचित्रता छे. धर्मी
जीवने स्व–परनी पर्यायनी अनेक प्रकारनी विचित्रता ख्यालमां आवतां तेमां विस्मयता लागती नथी के
पर्यायबुद्धिथी राग–द्वेष थता नथी, ‘आम केम?’ एवी शंकानो प्रश्न तेने थतो नथी. संसारमां पर्यायोनी
एवी ज विविधता होय. आ प्रमाणे द्रव्यना भानपूर्वक धर्मी जीव पर्यायने जाणे छे, तेमां तेने पर्यायबुद्धि
नथी. जे जीव एकला परनी सामे जोईने एवा ने एवा तीव्र राग–द्वेषमां वर्ती रह्यो छे, वीतरागतानो अंश
पण प्रगट करतो नथी अने कहे छे के ‘जेम थवानुं हशे तेम थशे’–तो ते तो प्रमादी अने स्वच्छंदी छे, तेने
वस्तुनुं कांई भान नथी. ‘जे पर्याय थवानी होय ते ज थाय छे, तेने फेरवी शकाती नथी’–आम जे
यथार्थपणे जाणे तेने द्रव्यबुद्धि थया विना रहे नहि. पर्याय स्वतंत्र छे एम माननारनी द्रष्टि द्रव्य उपर होवी
जोईए, अने जेने द्रव्य उपर द्रष्टि होय तेने पर्यायमां केटली वीतरागता थई जाय? द्रव्यस्वभावना
महिमाना जोरे तेने क्षणे क्षणे शुद्धता वधती जाय छे ने राग–द्वेष घटता जाय छे; आवा धर्मीने वस्तुस्वरूपनी
यथार्थ भावना होय छे.
ज पर्याय करुं’ एम जेने पर्याय