सरणने यथार्थपणे मानी शके नहि. जैनदर्शननी एकपण वातने यथार्थ कबूलतां तेमांथी आखी वस्तुस्थिति
ऊभी थई जाय छे.
रुचि तेने होती नथी. धर्मीए पोतानी द्रष्टिने अंतर्मुख करीने ध्रुवचिदानंद स्वभावने ज द्रष्टिनो विषय बनाव्यो
छे. जेने ध्रुवस्वभावनी द्रष्टि प्रगटी नथी तेने रागनी ने संयोगनी भावना खसती नथी. समवसरणनो संयोग
आत्मानो लाव्यो लवातो नथी, ते तो जगतना परमाणुओनुं परिणमन छे.
ने तेना उदय वखते बहारमां समवसरणनी रचना थाय एवुं परमाणुओनुं परिणमन होय छे. समकिती
धर्मात्माने तो समवसरणना संयोगनी के जे भावथी तीर्थंकरप्रकृति बंधाणी ते शुभभावनी भावना होती नथी,
तेने तो पोताना असंयोगी चैतन्यतत्त्वनी ज भावना छे; मिथ्याद्रष्टि जीवने संयोगनी ने रागनी भावना छे,
तेने कदी तीर्थंकरनामकर्म बंधातुं नथी.
प्रकारना शुभपरिणाम आवे, ने बीजा जीवोने तेवा परिणाम कदी आवे ज नहि. ए ज प्रमाणे कोईक जीवने
आहारकशरीर बंधाय एवा प्रकारनो शुभराग आवे ने बीजा जीवोने अनादिथी मांडीने मोक्ष पामता सुधीना
काळमां कदी पण तेवा प्रकारना परिणाम न आवे. कोई सम्यग्द्रष्टि जीवने सर्वार्थसिद्धिनो भव मळे एवी जातना
परिणाम थाय ने कोई सम्यग्द्रष्टिने पहेला स्वर्गनुं ईंद्रपद मळे तेवा परिणाम थाय; कोई जीव चक्रवर्ती थईने
पछी मुनि थईने मोक्ष पामे; कोई जीव साधारण मनुष्य थइने पछी मुनि थइने मोक्ष पामे; कोइ जीव केवळज्ञान
थया पछी अंतमुहूर्तमां ज सिद्ध थई जाय अने कोई जीव केवळज्ञान थया पछी करोडो–अबजो वर्षोसुधी
मनुष्यदेहमां अरिहंतपणे विचरे.–संसारमां जीवोना परिणामनी आवी विविधता छे ने निमित्तरूपे पुद्गलना
परिणमनमां पण तेवी विविधता छे. बधाय जीवो अनादिथी चाल्या आवे छे, द्रव्ये अने गुणे बधा जीवो सरखा
छे, छतां परिणाममां भिन्न भिन्न प्रकारो थाय छे–तेनुं कारण शुं? तेनुं कारण कोई नथी, पण संसारमां
परिणामोनी एवी ज विचित्रता छे. बे केवळी भगवंतो होय, तेमने बंनेने केवळज्ञानादि क्षायिकभाव सरखो
होवा छतां उदयभाव एकसरखो होतो नथी, उदयभावमां कंईकने कंईक फेर होय छे. धर्मी जीव पोताना एकरूप
स्वभावनी द्रष्टि अने भावना राखीने संसारनी आवी विचित्रतानो विचार करे छे, तेमां तेने क्षणे क्षणे वैराग्य
अने शुद्धता वधता जाय छे, ते संवर–निर्जरानुं कारण छे.
मोक्ष पामी जाय, पण वच्चे जेनाथी तीर्थंकरनामकर्म बंधाय एवा प्रकारनो शुभराग कदी न आवे, अने कोई
जीवने तीर्थंकरनामकर्म बंधाय एवा प्रकारनो भाव आवे. मोक्ष तो बंने जीवो पामे, पण तेमना परिणाममां
विचित्रता छे. एनुं कारण शुं? एनुं कारण ते ते पर्यायनी तेवी ज योग्यता! आ एक ‘योग्यतावाद’ (एटले के
स्वभाववाद) एवो छे के बधा प्रकारोमां लागु पडे अने बधा प्रकारोनुं समाधान करी नांखे. आ नक्की करतां
पोताना ज्ञानस्वभावनो निर्णय थाय छे ने ‘आम केम?’ एवो प्रश्न ज्ञानमां रहेतो नथी.
द्रष्टि जेने प्रगटी नथी तेने संसारना स्वरूपनो यथार्थ विचार होतो नथी. जेनाथी तीर्थंकरनामकर्म बंधाय,
जेनाथी सर्वार्थसिद्धिनो भाव मळे, जेनाथी आहारक शरीर मळे, तथा जेनाथी इन्द्रपद के चक्रवर्तीपद मळे–एवा
प्रकारना परिणाम सम्यग्द्रष्टिने ज होय छे, पण सम्यग्द्रष्टिने तेनी भावना होती नथी, तेम ज बधाय
सम्यग्द्रष्टिओने तेवा