Atmadharma magazine - Ank 105
(Year 9 - Vir Nirvana Samvat 2478, A.D. 1952)
(Devanagari transliteration).

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ः १७२ः आत्मधर्मः १०प
आत्माने तारतम्यता होय छे; कोईने अमुक प्रकारनो राग आवे ने कोईने बीजा प्रकारनो राग आवे. कोई जीव
एम माने के ‘मारे अमुक ज प्रकारनो राग करवो छे’ तो ते जीव रागनो कर्ता थाय छे, ते मिथ्याद्रष्टि छे. ‘हुं
ज्ञानमूर्ति छुं, रागनो एक अंश पण मारुं स्वरूप नथी’–आम जेने आत्मानुं भान थयुं होय पण हजी पूर्ण
वीतरागता प्रगटी न होय, तेवा जीवोमां जे जीव तीर्थंकर थवाने लायक होय तेने ज तीर्थंकरनामकर्म बंधाय
एवी जातना परिणाम आवे छे, ने तेने ज तीर्थंकरनामकर्म बंधाय छे; पछी सर्वज्ञ–परमात्मदशा प्रगट थतां तेने
समवसरणनी विभूतिनो संयोग होय छे.
जुओ, अंदरमां रागरहित चिदानंद स्वभावनुं भान....छतां पर्यायमां चारित्रनी नबळाईनो राग....
अने तेमां पण जेना निमित्ते तीर्थंकरनामकर्म बंधाय एवी जातनो राग, ते रागना निमित्ते सामे
तीर्थंकरप्रकृतिरूपे परिणमवानी लायकातवाळा परमाणुओ तथा तेना फळमां समवसरणनी रचना अने
आत्मानी पूर्ण वीतराग दशामां पण समवसरणनी विभूतिनो संयोग–आ बधुंय माने तो ज समवसरणने
यथार्थपणे स्वीकारी शके.
तीर्थंकरप्रकृति कोने बंधाय?–के जेने आत्मानुं भान होय ने रागनो आदर न होय तेने; अने ते प्रकृतिनुं
फळ कयारे आवे?–के ज्यारे ते राग टाळीने वीतरागी सर्वज्ञदशा प्रगटे त्यारे. तीर्थंकरप्रकृति बंधाय ते कांई
आत्माना धर्मनुं फळ नथी, ते तो रागथी बंधाय छे. आत्माना धर्मथी कर्मनुं बंधन थाय नहि. तीर्थंकरप्रकृतिनुं
बंधन तो नीचली दशामां धर्मीने थाय छे पण तेनो उदय तेरमा गुणस्थाने ज आवे छे. जे रागथी तीर्थंकरप्रकृति
बंधाणी ते राग टळी गया पछी ज ते प्रकृतिनो उदय आवे छे.–आ वात समजवा जेवी छे.
तीर्थंकर प्रकृतिना फळमां समवसरण होय छे. ज्यां रागरहित स्वभावनी द्रष्टि प्रगटी होय ते भूमिकामां
ज ते प्रकृति बंधाय छे, अने ज्यां रागरहित सर्वज्ञदशा प्रगटी होय त्यां ज तेनो उदय आवे छे; एटले खरेखर
जेने रागरहित स्वभावनी द्रष्टिनुं अने सर्वज्ञदशानुं भान होय ते ज समवसरणने मानी शके.
जेने सामग्रीनो राग छे तेने सामग्रीनी पूर्णता होती नथी. जेने सामग्रीनो राग छूटी गयो छे तेने ज
सामग्रीनी पूर्णता होय छे. जुओ, अहीं तीर्थंकरनी वात लेवी छे. तीर्थंकरने पुण्यसामग्रीनी पूर्णता होय छे, पण
तेमने सामग्री तरफना वलणनो भाव ज रह्यो नथी, तेओ तो आत्माना पूर्णानंदना भोगवटामां ज लीन छे.
जेने पुण्यसामग्रीना भोगवटानी ईच्छा छे तेने पुण्यसामग्रीनी पूर्णता होती नथी. तीर्थंकरना पुण्य सर्वोत्कृष्ट
होय छे पण तेनुं फळ साधकदशामां आवतुं नथी, राग टाळीने केवळज्ञान थया पछी ज ते तीर्थंकरप्रकृतिनुं फळ
आवे छे; पण ते वखते ते जीवने सामग्रीना भोगवटानो रागभाव होतो नथी. पहेलां नीचली दशामां रागरहित
पूर्णस्वभावनी द्रष्टि प्रगटी, ते भूमिकामां तीर्थंकरप्रकृति बंधाणी; अने पछी अंतरमां पूर्ण स्वभावनी भावना
भावतां भावतां केवळज्ञान थयुं, त्यां बहारमां तीर्थंकरप्रकृतिनो उदय आव्यो ने समवसरणनी रचना थई; पण
ते केवळीभगवानने संयोगना भोगवटा तरफनुं वलण रह्युं नथी. अहो! सो सो ईंन्द्रो आवीने तीर्थंकरना
चरणकमळने भक्तिथी पूजे छे ने देवी समवसरण रचे छे छतां भगवानने राग नथी, भगवान तो पोताना
स्वरूपना पूर्णानंदना भोगवटामां लीन छे. आवी पूर्णानंदी वीतरागदशावाळा जीवने ज समवसरणनो योग
होय छे, रागी जीवने समवसरण होतुं नथी; तेथी समवसरण माननारे आत्मानी आवी दशानी ओळखाण
करवी जोईए. जे आवी ओळखाण करे तेने कुदेव–कुगुरु–कुशास्त्रनी मान्यता रहे ज नहि. अहो! आत्मानी पूर्ण
परमात्मदशा प्रगटी जाय छतां देहनो अने समवसरणनो संयोग रहे.....पवित्रता अने पुण्यनो आवो मेळ
तीर्थंकरने होय छे. जैनदर्शन सिवाय आवी वात बीजे कयां छे?–क्यांय नथी. तेथी आ वात कबूलनार जीव
जैनदर्शन सिवाय बीजाने माने नहि.
आत्मा छे, तेनामां अनंत गुणो छे, तेनुं समय–समयनुं स्वतंत्र परिणमन छे; तेमां चारित्रगुणनी
विपरीतदशामां राग थाय छे, ते रागना निमित्ते कोई जीवने तीर्थंकरनामकर्म बंधाय छे ने तेना फळमां
समवसरण रचाय छे.–आ बधुं स्वीकारे तो ज समवसरणने मान्युं कहेवाय. आत्माना त्रिकाळी स्वभावने,
पर्यायने, रागने अने संयोगने–ए बधायने जे स्वीकारे तेने पर्यायनी, रागनी के संयोगनी भावना होती नथी
पण पोताना त्रिकाळी स्वभावनी ज भावना होय छे. आ बधी कबूलात आव्या वगर तीर्थंकरने के तीर्थंकरना
समव–