बेठुं, ते महोत्सव प्रसंगे पू. गुरुदेवश्रीनुं मंगल–प्रवचन.
केटलुं कबूल करवुं जोईए? प्रथम तो जगतमां भिन्न भिन्न अनंत आत्माओ छे; अनादिथी आत्मा
पोताना स्वभावनुं भान भूलीने चार गतिमां रखडतो हतो. पछी आत्मानुं यथार्थ भान कर्युं ने पूर्ण
वीतरागता न थई त्यां राग रह्यो; ते रागमां कोई जीवने एवो शुभराग होय के तेनाथी तीर्थंकरनामकर्म
बंधाय. जेनाथी तीर्थंकरनामकर्म बंधाय एवा परिणाम अमुक खास जीवने ज आवे छे, ने तेने ज
तीर्थंकरनामकर्म बंधाय छे. कोई जीव एम ईच्छे के ‘मारे तीर्थंकर थवुं छे माटे हुं शुभराग करीने के
सोळकारण भावना भावीने तीर्थंकरनामकर्म बांधुं’–तो एम तीर्थंकर थवातुं नथी. तीर्थंकरनामकर्म जेमांथी
बंधाय एवो राग सम्यग्द्रष्टिनी भूमिकामां ज आवे छे, पण धर्मी जीवने ते रागनी के तीर्थंकरनामकर्मनी
भावना होती नथी. अने समकिती जीवोमां पण बधायने तीर्थंकरनामकर्म नथी बंधातुं. बधा समकिती
जीवोने राग एकसरखो नथी होतो. राग ते आत्माना चारित्रगुणनी विपरीत अवस्था छे. ज्ञानीने
रागरहित स्वभावनुं भान होवा छतां पण, ज्यां सुधी वीतरागता न थाय त्यांसुधी राग होय छे; पण
तेमां जेना निमित्ते तीर्थंकरनामकर्म बंधाय एवा प्रकारनो राग तो अमुक जीवने ज होय छे. अने
त्यारपछी ते राग टाळीने वीतरागता प्रगट करी सर्वज्ञ थाय त्यारे ज ते तीर्थंकरनामकर्मनो उदय आवे छे.
त्यां ईंद्र वगेरे आवीने भक्तिपूर्वक ते तीर्थंकरभगवानना समवसरणनी दैवी रचना करे छे. आवुं
समवसरण अत्यारे आ भरतक्षेत्रमां नथी, पण ज्यारे अहीं महावीर परमात्मा बिराजता हता त्यारे
समवसरण हतुं ने देवो आवीने भगवाननी सेवा करता हता. अत्यारे महाविदेहक्षेत्रमां श्री सीमन्धर
परमात्मा तीर्थंकरपणे बिराजे छे, तेमने आवुं समवसरण छे. अहीं तो तेनो नमूनो छे.
आत्मा छे, ते एक ज नथी पण भिन्न भिन्न अनंत आत्माओ छे;
तेनी अवस्थामां विकार छे.
ते विकारना निमित्ते कर्म बंधाय छे, एटले के जगतमां अजीवतत्त्वो पण छे.
तीर्थंकरनामकर्म अमुक जीवने ज बंधाय छे, बधाने बंधातुं नथी, एटले जीवोना परिणामनी विचित्रता छे.
पर्यायमांथी विकार टळीने सर्वज्ञदशा प्रगटे छे, ने एवी सर्वज्ञदशामां तीर्थंकरने समवसरण होय छे.
अत्यारे आ क्षेत्रे एवा तीर्थंकर नथी; आ सिवाय महाविदेह वगेरे क्षेत्रो आ पृथ्वी उपर छे अने त्यां
रहे छे. चारित्रनी विपरीतताथी राग थाय छे, ते राग दरेक जीवने एकसरखो नथी होतो, पण तेमां दरेक