मानस्तंभ वगेरेनो अद्भुत वैभव. जैनधर्मनो आवो वैभव साधारण जीवोने तो जोवा पण नथी मळतो;
पुण्यवंत जीवोने ज जोवा मळे छे, अने तेमां पण अंदरनो चैतन्यवैभव तो पुण्यथी पण पार छे.
समवसरणादि वैभवनो संयोग थाय छे; ते समवसरणमां चारे बाजु मानस्तंभ होय छे. तेने देखतां ज मानी
जीवोना अभिमानना चूरेचूरा थई जाय छे. जुओ, तीर्थंकरोना पुण्य! गृहस्थदशामां तो तेमने माटे दागीना
वगेरे स्वर्गमांथी आवे छे ने केवळज्ञान थतां समवसरणादि रचाय छे. आवा पुण्यपरिणाम तीर्थंकर थनार
आत्माने ज आवे छे. पण ए ध्यान राखजो के आ पुण्यनी साथे अंदरमां पवित्रता पण पडी छे; ते पवित्रता ज
आत्माने तारे छे हो....कांई पुण्य तारता नथी. पुण्यना फळमां तो बहारनो वैभव मळे. ने पवित्रताथी अंदरनो
केवळज्ञान वैभव प्रगटे. अहो! आ ते केवो वैभव! तीर्थंकरने बहारमां समवसरणना वैभवनो पार नथी छतां
भगवानने तेमां क्यांय रागनो अंश पण नथी, भगवान तो आत्माना परमशांत आनंदरसमां झूले छे...परथी
अत्यंत उपेक्षाभाव प्रगटीने अकषायी चैतन्यबिंब थई गया छे. अहो......अंदरमां आटलो
उपेक्षाभाव..........अने आवी वीतरागी परिणति....छतां बहारमां आवा वैभवनो संयोग!–तेने जोतां ज मानी
जीवोनुं मान गळी जाय छे. भगवानना समवसरणमां मानस्तंभने देखतां ज पात्र जीवने एम थई जाय छे के
आवो जेनो वैभव छे ते आत्मा केवो? अहो, वैभवनो पार नथी छतां एने रागनो अंश पण नथी.–आम
बहुमान आवतां अभिमान छूटी जाय छे. मानस्तंभ मानी जीवोना मानने गाळी नांखे छे एवो उल्लेख
पुराणोमां ठेकाणे–ठेकाणे आवे छे.
वीतरागी संतोनुं आ कथन छे. साधक जीवने आत्मानी पवित्रता साथे केवा विशिष्ट पुण्य होय छे ने ते पुण्यना
फळमां बहारमां केवो संयोग होय छे–तेनुं ज्ञान कराव्युं छे. समवसरणादिनो संयोग मळे एवा पुण्य धर्मात्माने
आत्मानी पवित्रतानी साथे ज बंधाय छे, अज्ञानीने एवा पुण्य होता नथी. छतां पण, समवसरणनो संयोग
मळवो ते तो विकारनुं–पुण्यनुं फळ छे, ते कांई आत्माना धर्मनुं फळ नथी,–आम समजे तो संयोगथी अने
विभावथी भेदज्ञान थईने स्वभावनुं सम्यग्ज्ञान थई जाय. ज्यां आत्माना ज्ञान–आनंदनी पूर्णदशारूप वैभव
प्रगटयो त्यां पूर्णवैभव होय छे. आत्मानी सिद्धदशा थतां पुण्यना परमाणुओ छूटी जाय छे ने बहारनो संयोग
पण छूटी जाय छे. अंदरनो चैतन्यवैभव ज्यां पूरो थयो त्यां तीर्थंकरोने बहारमां समवसरण वगेरे पूर्णवैभव
होय छे; ते समवसरणमां मानी जीवोना मानने गाळी नांखनारा मानस्तंभ होय छे. वळी नंदीश्वरद्वीपमां,
ऊर्ध्वलोकमां स्वर्गमां तथा अधोलोकमां भवनवासी देवोना निवासस्थानमां पण मानस्तंभो छे, अने भारतमां
पण अत्यारे घणा स्थळे मानस्थंभो छे.
अहींनी वात सांभळीने खुशी थया हता. ‘वस्तुनी योग्यताथी ज दरेक कार्य थाय छे, अहो! आ
‘योग्यता’ तो अपूर्व वस्तु स्थितिने जाहेर करे छे, तेमां एकलो ज्ञायकभाव अने वीतरागता छे’–ए वात
तेमने अपूर्व लागी. ते शास्त्रीजी एम वात कहेता हता के अमारा देशमां ९० फूट ऊंचो एक ज पथ्थरमांथी
कोतरेलो मानस्तंभ छे. आ उपरांत अजमेरमां ८२ फूट ऊंचो मानस्तंभ छे; श्री सम्मेदशिखरजी, पावागढ,
चित्तोड, मांगीतुंगी, महावीरजी, आरा, तारंगा, मूलबिद्री, दक्षिण कन्नड, श्रवणबेलगोला वगेरे ठेकाणे पण
मानस्तंभ छे. आ रीते मानस्तंभ ए कांई नवुं नथी. अहीं मानस्तंभ करवानो विचार दस वर्ष पहेलां
आवेलो; आजे तेनुं मुहूर्त थयुं. तेमां मुमुक्षुओए घणो उल्लास देखाडयो छे. हालमां सौराष्ट्रमां कोई ठेकाणे
मानस्तंभ न हतो ने पहेलवहेलो