Atmadharma magazine - Ank 105
(Year 9 - Vir Nirvana Samvat 2478, A.D. 1952)
(Devanagari transliteration).

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अषाढः २४७८ः १८१ः
अहीं–सोनगढमां थाय छे, तेथी अजाण्या लोकोने नवुं लागे छे.
सोनगढमां मूळनायक भगवान तो सीमंधर भगवान,
शास्त्र तो समयसार,
समवसरण तो अष्टभूमिवाळुं अने तेमां वळी
कुंदकुंदाचार्यदेव ऊभेला,
थांभला विनानो मोटो प्रवचन–मंडप,
अने वळी आ मोटो मानस्तंभ!
–आ बधुं घणा लोकोने नवुं लागे तेवुं छे. पण भाई! ए कांई नवुं नथी, तने खबर नथी एटले नवुं
लागे छे.
वळी घणाने एम प्रश्न थाय छे के अध्यात्मनी द्रष्टि साथे मानस्तंभनो मेळ कई रीते छे? तेनो खुलासो
पण आमां आवी गयो छे. धर्मी जीवने रागरहित शुद्ध चैतन्यस्वभावनी अध्यात्मद्रष्टि प्रगटी होवा छतां, हजी
पूर्ण वीतरागता न थई होय त्यां धर्मप्रभावना वगेरेनो शुभभाव आवे छे, तेमां मानस्तंभ वगेरे कराववानो
भाव पण आवे छे. अध्यात्मद्रष्टि होवा छतां आवो भाव आवे तेमां कांई विरोध नथी जो कोई एम कहे के
‘अध्यात्मद्रष्टिवाळाने शुभभाव आववो ज न जोईए’–तो तेम कहेनारने अध्यात्मद्रष्टि शुं छे तेनुं भान नथी
अने पुण्यतत्त्वनी पण तेने खबर नथी. रागनी भूमिकामां विचित्र प्रकारना रागभाव आवे छे, तेमां धर्मीने
देव–गुरु–धर्मनी भक्तिप्रभावनानो भाव थया विना रहेतो नथी. मानस्तंभ ए पण धर्मनी प्रभावनानुं कारण
छे. जे जीवने साचा देव–गुरु–धर्मनी प्रभावनानो उल्लासभाव नथी आवतो, ने एकला अशुभरागमां ज खूंची
रह्यो छे तेने तो संसार अने धर्मना निमित्तो वच्चेनो विवेक करतां पण नथी आवडतो. जीवना रागने लीधे कांई
बहारनां कार्यो बनता नथी, बहारना कार्यो तो तेना कारणे स्वयं बने छे. पण जेने धर्मनो प्रेम होय तेने धर्मना
निमित्तोनुं पण बहुमान आव्या विना रहेतुं नथी. कोई एम माने के ‘आपणे आवी बहारनी प्रवृत्तिमां न
पडवुं, आपणे तो आत्माना ज विचारमां रहेवुं’–तो ते पण वस्तुस्थितिने समजतो नथी. भाई! बहारनी
प्रवृत्तिने तो क्यां कोई पण जीव करी शके छे? राग वखते रागनी दिशा कई तरफ वळे छे तेनी आ वात छे.
अध्यात्मद्रष्टिवाळाने बहारनो विकल्प न ज आवे–एवुं नथी, तेम ज जीवने विकल्प आव्यो माटे बहारमां
मानस्तंभ वगेरे कार्य थाय छे–एम पण नथी. जेने धर्मनो प्रेम होय तेने एवो विकल्प आवे छे के अहो!
मानस्तंभ द्वारा जैनधर्मना वैभवने जगत देखे अने धर्मनी प्रभावना थाय! तेमां निमित्त तरीके वीतरागी देव–
गुरु–धर्मनुं बहुमान छे ने परमार्थे पोताना पूर्णस्वभावनुं बहुमान छे. भक्ति–प्रभावनानो शुभविकल्प कोईक
जीवोने तो अंतरनी समजणपूर्वक आवे छे, कोईकने साधारण लक्षपूर्वक आवे छे अने कोईक जीवोने समज्या
वगर पण शुभविकल्प आवे छे. आ शुभविकल्पथी धर्म थाय छे–एम नथी कहेवुं पण नीचली दशामां
अध्यात्मद्रष्टिवाळाने के अध्यात्मद्रष्टि वगरनाने पण तेवो शुभराग आवे छे अने ते पुण्यबंधनुं कारण छे; तेने
जो न माने तो ते जीवे पुण्यतत्त्वने जाण्युं नथी. जीवना शुभविकल्पने लीधे जडनी क्रिया थई एम नथी, तेम ज
जडनी क्रिया थवानी हती माटे जीवने शुभविकल्प करवो पडयो एम पण नथी; अजीवनी क्रिया अजीवना कारणे
थाय छे–एनुं धर्मीने बराबर भान छे, पण रागना काळे तेने धर्मप्रभावना वगेरेमां उल्लासपरिणाम आव्या
विना रहेता नथी. जेम–संसारमां जेने स्त्री वगेरेनो प्रेम छे तेने तेना पोषणनो अशुभभाव आवे छे, तेम जेने
धर्मनो प्रेम होय तेने धर्मना निमित्तो प्रत्ये तथा प्रभावना वगेरेमां शुभभाव आवे छे. जो तेने न स्वीकारे तो
ते जीवने संसार अने धर्म वच्चेनो विवेक नथी, अने जो ते रागने ज धर्म मानी ल्ये तो तेने पण स्वभाव अने
विभावनुं भेदज्ञान नथी. अध्यात्मद्रष्टिवाळा जीव रागने धर्म नथी मानता, छतां नीचली दशामां राग आवे छे
खरो; अध्यात्मद्रष्टि पछी जेमने स्वभावमां लीन थईने पूर्ण वीतरागता प्रगटी गई होय तेमने कोई प्रकारनो
राग होतो नथी. जे भूमिकानी जे स्थिति होय ते जाणवी जोईए.
बहारनी प्रवृत्ति तो कोई जीव करी शकतो ज नथी, एटले बहारना संयोग उपरथी धर्म–अधर्मनुं माप
नथी. धर्मीने पूर्वना पुण्यना कारणे बहारमां संयोगना गंज देखाय छतां ज्ञानी मूंझाता नथी. तेम ज तेमने एम
शंका नथी पडती के ‘वधारे संयोग छे माटे मने वधारे बंधन थई जशे!’ बहारमां झाझा संयोग