कारणे होय अने राग पण होय, पण ते वखते जीवनी द्रष्टि कयां पडी छे?–राग अने संयोग उपर ज द्रष्टि छे के
स्वभाव उपर द्रष्टि छे? तेना उपर धर्म–अधर्मनुं माप छे.
तेम ज ज्ञानने कारणे राग के रागने कारणे ज्ञान थयुं–एम पण ते मानता नथी. संयोगथी तथा रागथी भिन्नता
ने ज्ञानस्वभावमां एकता–एवा विवेकने लीधे तेने क्षणे क्षणे स्वभावमां ज्ञाननी एकाग्रता थती जाय छे, ने
राग टळतो जाय छे–एनुं नाम धर्म छे. धर्मी जाणे छे के मारा स्वभावना आश्रये ज्ञाननुं समय समयनुं स्वतंत्र
परिणमन थाय छे, ने सामे ज्ञेय पदार्थोमां पण समयसमयनुं स्वतंत्र परिणमन थाय छे. मारा स्व–
परप्रकाशकज्ञानसामर्थ्यनी जेवुं जाणवानी लायकात होय तेवुं ज ज्ञेय सामे होय; ने रागना काळे तेवो ज राग
होय; छतां कोईने कारणे कोई नथी, ज्ञानने लीधे राग के संयोग नथी. संयोगने लीधे ज्ञान के राग नथी अने
रागने लीधे ज्ञान के संयोग नथी. आम जाणनार धर्मी जीव संयोग अने रागनी रुचि छोडीने चिदानंद–
स्वभावनी ज रुचि अने भावना करे छे. आवो सम्यग्द्रष्टि जीव ज्यारे संसारनुं स्वरूप विचारे त्यारे तीर्थंकरो,
समवसरण, मानस्तंभ वगेरेनुं स्वरूप पण विचारे छे,–आमां घणां ऊंडा न्यायो छे ते अंदरथी समजे तो खबर
पडे.
करवुं होय तो आ वीतरागमार्गमां ज छे.’ (अहीं तालीना गडगडाटथी श्रोताजनोए मानस्तंभनी आ मंगल–
भेरीने झीली हती.)
अने वीतरागे कहेलुं वस्तुस्वरूप काने पडयुं, तो हवे यथार्थ वस्तुस्वरूप शुं छे–के जेना स्वीकारथी भवनो नाश
थाय? तेनी रुचि करीने बराबर समजवुं जोईए. जीवोए अनादिकाळमां सत्य वातने अंतरनी रुचिपूर्वक कदी
सांभळी नथी, जो एकवार पण अंतरमां उल्लास प्रगट करीने रुचिपूर्वक सांभळे तो तेनो मोक्ष थया विना रहे
नहि.
छे माटे मने धर्म थाय छे.–पण ज्ञानी ना पाडे छे अने कहे छे
के, भाई रे! प्रथम तुं तने समज; प्रथम साची समजण करी
तारी स्वतंत्रतानो निर्णय कर.