Atmadharma magazine - Ank 105
(Year 9 - Vir Nirvana Samvat 2478, A.D. 1952)
(Devanagari transliteration).

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ः १८२ः आत्मधर्मः १०प
होय माटे रागनी प्रवृत्ति वधी गई ने संयोग घटया माटे रागनी प्रवृत्ति घटी गई–एम नथी. संयोगो तेना
कारणे होय अने राग पण होय, पण ते वखते जीवनी द्रष्टि कयां पडी छे?–राग अने संयोग उपर ज द्रष्टि छे के
स्वभाव उपर द्रष्टि छे? तेना उपर धर्म–अधर्मनुं माप छे.
धर्मी जीव पोताना चैतन्यस्वभावनी द्रष्टि राखीने स्वपरप्रकाशक ज्ञानमां रागने अने संयोगने पण
जाणे छे; पण मारा कारणे परनां काम थया अथवा तो परज्ञेयोने कारणे मने ज्ञान थयुं–एम धर्मी मानता नथी;
तेम ज ज्ञानने कारणे राग के रागने कारणे ज्ञान थयुं–एम पण ते मानता नथी. संयोगथी तथा रागथी भिन्नता
ने ज्ञानस्वभावमां एकता–एवा विवेकने लीधे तेने क्षणे क्षणे स्वभावमां ज्ञाननी एकाग्रता थती जाय छे, ने
राग टळतो जाय छे–एनुं नाम धर्म छे. धर्मी जाणे छे के मारा स्वभावना आश्रये ज्ञाननुं समय समयनुं स्वतंत्र
परिणमन थाय छे, ने सामे ज्ञेय पदार्थोमां पण समयसमयनुं स्वतंत्र परिणमन थाय छे. मारा स्व–
परप्रकाशकज्ञानसामर्थ्यनी जेवुं जाणवानी लायकात होय तेवुं ज ज्ञेय सामे होय; ने रागना काळे तेवो ज राग
होय; छतां कोईने कारणे कोई नथी, ज्ञानने लीधे राग के संयोग नथी. संयोगने लीधे ज्ञान के राग नथी अने
रागने लीधे ज्ञान के संयोग नथी. आम जाणनार धर्मी जीव संयोग अने रागनी रुचि छोडीने चिदानंद–
स्वभावनी ज रुचि अने भावना करे छे. आवो सम्यग्द्रष्टि जीव ज्यारे संसारनुं स्वरूप विचारे त्यारे तीर्थंकरो,
समवसरण, मानस्तंभ वगेरेनुं स्वरूप पण विचारे छे,–आमां घणां ऊंडा न्यायो छे ते अंदरथी समजे तो खबर
पडे.
जुओ, आजे अहीं मानस्तंभनुं मुहूर्त कर्युं तेना मांगळिकमां आ ‘मानस्तंभनी भेरी’ वगाडी......आ
मानस्तंभ एम जाहेर करे छे के ‘हे जीवो! जो तमारे सत्य धर्म जोईतो होय अने ते समजीने आत्मानुं कल्याण
करवुं होय तो आ वीतरागमार्गमां ज छे.’ (अहीं तालीना गडगडाटथी श्रोताजनोए मानस्तंभनी आ मंगल–
भेरीने झीली हती.)
अहो.....वस्तुस्वरूप शुं छे तेनो धीरजथी विचारीने निर्णय करवो जोईए. अंदर वस्तुस्वरूपना निर्णय
वगर बहारथी कल्याण थई जवानुं नथी. अनंतकाळमां दुर्लभ एवो आ मनुष्यदेह मळ्‌यो, सत्समागम मळ्‌यो
अने वीतरागे कहेलुं वस्तुस्वरूप काने पडयुं, तो हवे यथार्थ वस्तुस्वरूप शुं छे–के जेना स्वीकारथी भवनो नाश
थाय? तेनी रुचि करीने बराबर समजवुं जोईए. जीवोए अनादिकाळमां सत्य वातने अंतरनी रुचिपूर्वक कदी
सांभळी नथी, जो एकवार पण अंतरमां उल्लास प्रगट करीने रुचिपूर्वक सांभळे तो तेनो मोक्ष थया विना रहे
नहि.
***
–ज्ञानी ‘ना’ पाडे छे–
आत्मानी सत्ता केवी छे तेनी खबर न होय तेथी
उपयोग बीजे रखडतो होय, अने माने के में आटली क्रिया करी
छे माटे मने धर्म थाय छे.–पण ज्ञानी ना पाडे छे अने कहे छे
के, भाई रे! प्रथम तुं तने समज; प्रथम साची समजण करी
तारी स्वतंत्रतानो निर्णय कर.
–श्री समयसार–प्रवचनो भा. १ पृ. ४९