ः १८४ः आत्मधर्मः १०प
‘चार कर्म घनघाती ते व्यवच्छेद ज्यां
भवनां बीज तणो आत्यंतिक नाश जो;
सर्व भाव ज्ञाताद्रष्टा सह शुद्धता
कृतकृत्य प्रभु वीर्य अनंत प्रकाश जो.’
–अहो, धन्य ए दशा! एवी अरहंतदशा प्राप्त थया पछी अल्पकाळमां बाकीना चार अघाति कर्मोनो
पण अभाव करीने जीव सिद्ध थाय छे अने स्वभावऊर्ध्वगमन करीने एक समयमां सिद्धलोकमां पहोंची जाय छे,
ज्यां अनंत सिद्धभगवंतो बिराजी रह्या छे त्यां ते सिद्धभगवंतोनी वसतीमां जईने सादि–अनंतकाळ आत्माना
सहजसुखने भोगव्या करे छे. अहो–
‘सादि अनंत अनंत समाधि सुखमां,
अनंत दर्शन–ज्ञान अनंत सहित जो.’
आवा सिद्ध भगवंतोने आठे कर्मोनो अभाव होय छे, तथा आठ महागुणो प्रगटया होय छे; तेमने
शरीर पण होतुं नथी. तेमने कदी संसारमां अवतार थतो नथी, एवी ने एवी सिद्धदशामां तेओ सदा वर्त्या करे
छे. ए सिद्धदशामां एकला चैतन्यमूर्ति शुद्ध आत्मा सिवाय बीजा कोई पण पदार्थोनो संबंध होतो नथी.
बहारनी कोइ पण सामग्री वगर तेओ पोताना स्वभावथी ज पूर्ण सुखी छे.
धन्य ए सहज सुखी सिद्धदशा! आवी सिद्धदशा प्राप्त करवी ए ज आत्मार्थीओनुं जीवनध्येय छे; अने
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र ते ज सिद्धिनो उपाय छे.
आचार्यश्री नेमिचन्द्र सिद्धांतचक्रवर्ती द्रव्यसंग्रहमां सिद्धनुं स्वरूप वर्णवतां कहे छे केः–
निष्कर्म्माणः अष्टगुणाः किंचिदूनाः चरमदेहतः सिद्धाः।
लोकाग्रस्थिताः नित्याः उत्पादव्ययाभ्यांस युक्ताः।। १४।।
सिद्ध जीव केवा छे? ज्ञानावरण आदि आठकर्मोथी रहित छे; सम्यक्त्व आदि आठ गुणोथी सहित छे;
छेल्ला शरीरथी कांईक ओछो तेमनो आकार छे; नित्य छे तेम ज उत्पाद–व्यय सहित छे; अने लोकना छेडे स्थित
छे; आवा सिद्ध जीवो छे.
आवा सिद्ध भगवंतो अनंत छे, अने छ महिना ने आठ समये जगतमांथी ६०८ जीवो सिद्ध थया ज करे छे.
ते सिद्ध भगवंतोमां अनंत गुणो छे पण तेमां संक्षेपथी आठ गुणो मुख्य कहेवामां आव्या छे, ते आ प्रमाणे–(१)
क्षायिक सम्यक्त्व (२) केवळज्ञान (३) केवळदर्शन (४) अनंतवीर्य (प) सूक्ष्मत्व (६) अवगाहनत्व (७)
अगुरुलघुत्व अने (८) अव्याबाध अनंतसुख. (तेना विस्तार माटे बृहत् द्रव्यसंग्रहनी १४ मी गाथा जुओ.)
सिद्ध भगवंतोने पोताना स्वभावथी ज परिपूर्ण सुख होय छे, कांई बाह्य सामग्रीनुं सुख नथी. सिद्ध–
भगवाननी जेम कोई पण जीवोने बाह्यसामग्रीथी सुख थतुं नथी; अज्ञानी जीवो पोतानी पर्यायमां कल्पना
करीने परमां सुख माने छे, त्यां ते परवस्तुमांथी कांई तेने सुख वेदातुं नथी पण ते पोतानी कल्पनाने ज वेदे छे.
अने सिद्धभगवंतोने बहारनी सामग्री वगर, पोताना आत्मस्वभावमांथी उत्पन्न परमार्थसुख छे. मोह अने
राग–द्वेष ते आकुळता छे, आकुळता ते दुःख छे, ने आकुळतानो अभाव ते सुख छे. सिद्ध भगवंतोने मोह–
राग–द्वेषनो सर्वथा अभाव छे तेथी तेमनो आत्मा ज सुखस्वरूपे थई गयो छे; तेमने एक समयमां परिपूर्ण
ज्ञान होवाथी परिपूर्ण सुख छे, ते सुख बाह्य विषयो विनानुं अने अतीन्द्रियस्वभावथी उत्पन्न थयेलुं छे. केवळी
भगवंतोना सुखनी प्रशंसा करतां कुंदकुंदाचार्यदेव कहे छे के–
‘अत्यंत आत्मोत्पन्न विषयातीत अनुप अनंतने
विच्छेदहीन छे सुख अहो! शुद्धोपयोग प्रसिद्धने.’
शुद्धोपयोगथी निष्पन्न थयेला केवळी भगवंतोनुं अने सिद्ध भगवंतोनुं सुख अतिशय, आत्मोत्पन्न,
विषयातीत (अतीन्द्रिय) अनुपम, अनंत अने अविच्छिन्न छे.
अहो! आवुं सुख सर्वप्रकारे प्रार्थनीय छे. जे जीव सिद्धभगवंतोना आवा सुखने ओळखे ते जीव
ईंद्रियविषयोमां सुख माने नहि; आत्मा सिवाय कोई पण परमां पोतानुं सुख माने नहि, पण ‘मारुं सुख