Atmadharma magazine - Ank 106
(Year 9 - Vir Nirvana Samvat 2478, A.D. 1952)
(Devanagari transliteration).

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: २०२ : आत्मधर्म–१०६ : श्रावण : २००८ :
स्वाध्यायशाळानी
‘श्राविका–ब्रह्मचर्याश्रम’नी
दिवालो उपरथी
‘कर्तव्य’
जीवे मुख्यमां मुख्य अने अवश्यमां अवश्य
एवो निश्चय राखवो के जे कांई मारे करवुं छे ते
आत्माने कल्याणरूप थाय ते ज करवुं छे.
–श्रीमद् राजचंद्र
‘नमस्कार’
अमारा जीवनने उजाळनार अने अम पामरने
सत्पंथे चडावनार हे परमोपकारी श्री सद्गुरुदेव!
आपना चरण कमळमां परम भक्तिथी नमस्कार!
‘पवित्र आश्रम’
अर्हंतने, श्री सिद्धनेय नमस्करण करी ए रीते,
गणधर अने अध्यापकोने सर्व साधु समूहने.
तसु शुद्ध दर्शनज्ञान मुख्य ‘पवित्र आश्रम’ पामीने,
प्राप्ति करुं हुं साम्यनी जेनाथी शिवप्राप्ति बने.
–श्री प्रवचनसार
‘सिद्ध भगवंतोनुं परम सुख’
आत्मोपादानसिद्धं स्वयमतिशयवत् वीतबाधं विशालं।
वृद्धिह्रासव्यपेतं विषयविरहितं निःप्रतिद्वन्द्व भावम्।।
अन्यद्रव्यानपेक्षं निरूपमममितं शाश्वतं सर्वकालं।
उत्कृष्टानंतसारं परमसुखमतस्तस्य सिद्धस्य जातम्।। ७।।
–श्री सिद्धभक्ति.
‘मनोरथ’
ऊंडी ऊंडी ऊंडेथी सुखनिधि सतना वायु नित्ये वहंती,
वाणी चिन्मूर्ति! तारी उर अनुभवना सूक्ष्म भावे भरेली;
भावो ऊंडा विचारी अभिनव महिमा चित्तमां लावी लावी,
खोयेलुं रत्न पामुं–मनरथ मननो, पूरजो शक्तिशाळी!
–श्री सद्गुरुदेवनी स्तुति.
‘चारित्र–धर्म –साम्य’
स्वरूपमां चरवुं ते चारित्र छे.
स्वसमयमां प्रवृत्ति एवो तेनो अर्थ छे.
ते ज वस्तुनो स्वभाव होवाथी धर्म छे.
शुद्ध चैतन्यनुं प्रकाशवुं एवो तेनो अर्थ छे.
ते ज यथास्थित आत्मगुण होवाथी साम्य छे.
– श्री प्रवचनसार टीका.
* सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान *
प्रथम ज्ञानस्वभाव आत्मानो निश्चय करीने
पछी मतिज्ञानतत्त्वने तथा श्रुतज्ञानतत्त्वने पण
आत्मसन्मुख करतो अत्यंत विकल्प रहित थईने तत्काळ
निजरसथी ज प्रगट थता आदि–मध्य–अंतरहित,
अनाकुळ, केवळ एक, आखाय विश्वना उपर जाणे के
तरतो होय तेम अखंड प्रतिभासमय, अनंत,
विज्ञानघन, परमात्मरूप समयसारने ज्यारे आत्मा
अनुभवे छे ते वखते ज आत्मा सम्यक् पणे देखाय छे.
अने जणाय छे तेथी समयसार ज सम्यग्दर्शन अने
सम्यग्ज्ञान छे. –श्री समयसार–आत्मख्याति.
* भावना *
मिथ्यात्व–आदिक भावने चिरकाळ भाव्या छे जीवे;
सम्यक्त्व–आदिक भाव रे! भाव्या नथी पूर्वे जीवे. ९०.
भवावर्तमां पूर्वे नहि भावेली भावनाओ हवे
हुं भावुं छुं. ते भावनाओ पूर्वे नहि भावी होवाथी हुं
भवना अभाव माटे तेमने भावुं छुं.
–श्री नियमसार.
* मुमुक्षुनुं कर्तव्य *
प्रत्यक्ष सत्समागममां भक्ति वैराग्यादि द्रढ