अने कई रीते प्राप्त कराय छे?’ तेना उत्तरमां श्री आचार्यदेव कहे छे के
‘आत्मा अनंत धर्मोवाळुं एक द्रव्य छे, अने अनंतनयात्मक श्रुतज्ञान–
प्रमाणपूर्वक स्वानुभव वडे ते जणाय छे.’ अथवा आत्मद्रव्यनुं ४७ नयोथी वर्णन
कर्युं छे, तेमांथी १७ नयो उपरना प्रवचनो अत्यार सुधीमां आवी गया छे,
त्यार पछी आगळ अहीं आपवामां आवे छे.
चैतन्यमूर्ति आत्मा अनंत धर्मोथी महिमावंत छे. जेणे पोतानुं अपूर्व आत्महित प्रगट करवुं होय तेणे
नहि अने परनो महिमा टळे नहि. आत्मानो महिमा आव्या वगर ज्ञान तेमां ठरे नहि एटले के आत्महित
प्रगटे नहि. आत्माने ओळखतां तेनो महिमा आवे अने ज्ञान तेमां ठरे एटले आत्महित प्रगटे. माटे जे जीव
आत्महितनो कामी होय तेणे सत्समागमे आत्माना स्वभावने ओळखवो जोईए.
पण पोत पोतानी कल्पना प्रमाणे कल्पी लीधुं छे. जगतमां अनंत आत्माओ अने अनंत परमाणुओ स्वतंत्र–
स्वयंसिद्ध तत्त्वो छे, ते दरेक पदार्थ एक ज समयमां उत्पाद–व्यय–ध्रुवता सहित छे; एकेक आत्मा असंख्यप्रदेशी
अने अनंत धर्मोथी परिपूर्ण छे–आवी वात सर्वज्ञशासन सिवाय बीजे क्यां छे? श्री समंतभद्र आचार्यदेव
स्वयंभूस्तोत्रमां कहे छे के ‘हे जिनेन्द्र! आखुं जगत प्रत्येक समये उत्पाद–व्यय–ध्रौव्यलक्षणवाळुं छे–आवुं जे
तारुं वचन छे ते तारी सर्वज्ञताने जाहेर करे छे.’ ध्रुवता अपेक्षाए वस्तु नित्य छे ने उत्पाद–व्यय अपेक्षाए
वस्तु अनित्य छे; ए रीते एक ज वस्तुमां नित्य–अनित्यपणुं एक साथे ज रहेलुं छे. अज्ञानीओने आ वात
विरोधाभास जेवी लागी छे के अरे! जे नित्य होय ते ज अनित्य कई रीते होय? अने जे अनित्य होय ते ज
नित्य कई रीते होय? एकेक वस्तुमां अनंत धर्मो छे–ए वात अज्ञानीओने समजाती नथी. पण, द्रव्यपणे जे
वस्तु नित्य छे ते ज वस्तु पर्यायपणे अनित्य छे–आम यथार्थ वस्तुस्वरूप समजतां ज्ञानीने तो प्रमोद आवे छे
के अहो! आवी अपूर्व वात में पूर्वे कदी सांभळी न हती.