Atmadharma magazine - Ank 106
(Year 9 - Vir Nirvana Samvat 2478, A.D. 1952)
(Devanagari transliteration).

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: १९६ : आत्मधर्म–१०६ : श्रावण : २००८ :
शक्ति आत्मामां भरी छे; ते आत्मशक्तिनी–आत्मस्वभावनी भावना भावतां एटले के तेनी श्रद्धा–ज्ञान करीने
तेमां लीन थतां केवळज्ञान अने केवळदर्शननुं व्यक्त परिणमन थई जाय छे.
अहीं तो कह्युं छे के सर्वदर्शित्वशक्ति आत्मदर्शनमयी छे, एटले के आत्माने देखतां तेमां त्रणकाळ
त्रणलोक देखाई जाय तेवी सर्वदर्शित्वशक्ति छे. आत्म ईन्द्रियोवडे तो नथी देखतो, तेम ज लोकालोकने देखवा
माटे तेने लोकालोकनी सन्मुख थवुं नथी पडतुं, पण आत्मसन्मुख रहीने ज लोकालोकने देखी ल्ये एवी
आत्मानी ताकात छे. अने आत्माना आवा सामर्थ्यनी प्रतीत पण कोई पर वडे के परनी सन्मुखताथी थती
नथी, स्वरूपसन्मुखताथी ज तेनी प्रतीत थाय छे.
कोई एम कहे के ‘भगवान अनंतशक्ति संपन्न छे पण सर्वशक्तिसंपन्न नथी, एटले भगवान अनंतने
देखे पण सर्वने न देखे’ –तो एम कहेनारने आत्माना सर्वदर्शित्वस्वभावनी प्रतीत नथी एटले तेणे आत्माने
ज मान्यो नथी. अंर्तद्रष्टि वगर पोताने पंडित मानीने लोको अनेक प्रकारना कुतर्क करे छे, पण चैतन्यवस्तु
एकला तर्कनो विषय नथी, आ मार्ग तो अंर्तद्रष्टि अने अनुभवनो छे. आचार्यदेवे अहीं स्पष्ट कह्युं छे के
आत्माना दर्शनस्वभावमां सर्वदर्शीपणे परिणमवानी ताकात छे. सर्वज्ञता अने सर्वदर्शितारूपे आत्मानुं
परिणमन थई शके छे–एवी पण जेने प्रतीत नथी तेणे तो खरेखर सर्वज्ञदेवने ज मान्या नथी एटले तेने तो
जैनधर्मनी व्यवहारश्रद्धा पण नथी.
आ शक्तिओनुं वर्णन करीने आचार्यदेवे थोडा शब्दोमां घणुं रहस्य भरी दीधुं छे.
भगवाननी स्तुतिमां आवे छे के
‘सव्वण्णुणं सव्वदरिसीण’ –हे भगवान! आप सर्वज्ञ अने सर्वदर्शी
छो. –स्तुतिमां आम बोले पण भगवान जेवी ज सर्वज्ञ अने सर्वदर्शित्वशक्ति पोताना आत्मामां भरी छे तेनो
विश्वास न करे तो धर्मनो लाभ थाय नहि, अने तेणे भगवाननी परमार्थस्तुति करी न कहेवाय. भगवानमां
जेवी सर्वज्ञता अने सर्वद्रर्शिता छे तेवी ज सर्वज्ञता अने सर्वदर्शिता प्रगटवानुं सामर्थ्य पोतामां पण भर्यु छे
तेनो विश्वास करे तेणे ज भगवाननी खरी स्तुति करी छे.
दर्शन बधा पदार्थोने सामान्य सत्तामात्र देखे छे; सिद्ध अने संसारी, चेतन अने जड–एवा भाग पाड्या
विना ‘बधुंय छे’ एम दर्शन देखे छे. त्रीजी द्रशिशक्तिना वर्णनमां दर्शनउपयोगनुं कथन विस्तारथी आवी गयुं
छे. द्रशिशक्ति परिणमीने सर्वदर्शीपणुं थाय एवो तेनो परिणमन स्वभाव छे. अधूरापणे परिणमे एवो तेनो
स्वभाव नथी. लोकालोकने देखतां आत्मा लोकालोकमय थई जतो नथी माटे आ सर्वदर्शित्वशक्ति
आत्मदर्शनमय छे. सामे लोकालोक छे माटे अहीं सर्वदर्शीपणुं छे एम नथी. लोकालोकने लीधे आत्मानुं
सर्वदर्शीपणुं खीलतुं नथी; जो लोकालोकथी ते खीलतुं होय तो, लोकालोक तो अनादिथी छे तेथी सर्वदर्शीपणुं पण
अनादिथी खीलवुं जोईए. माटे कह्युं के सर्वदर्शित्वशक्ति आत्मदर्शनमय छे, आत्माना अवलंबने सर्वदर्शीपणुं
खीली जाय छे. जेणे सर्वदर्शी एवा निज आत्माने देख्यो तेणे बधुं देख्युं. यथार्थपणे एक पण शक्तिने देखतां
अनंतगुणमय आखुं द्रव्य ज देखवामां आवी जाय छे, एक गुणनी प्रतीत करतां अभेदपणे आखुं द्रव्य ज
प्रतीतमां आवी जाय छे, केमके ज्यां एक गुण छे त्यां ज अभेदपदे अनंतगुणो छे.
आत्मानुं सर्वदर्शीपणुं कोई निमित्तनी सामे जोवाथी विकास पामतुं नथी, तेम ज पुण्यना लक्षे के वर्तमान
पर्यायना आश्रये पण तेनो विकास थतो नथी, सर्वदर्शित्व सामर्थ्य जेनामां त्रिकाळ पड्युं छे एवा अभेद
परिपूर्ण द्रव्यना लक्षे ज सर्वदर्शीपणानो परिपूर्ण विकास थाय छे; एटले द्रव्यद्रष्टि करवी ते ज तात्पर्य छे एम
सिद्ध थाय छे. कोई निमित्तमां के रागमां एवी ताकात नथी के सर्वदर्शिता आपे. अधूरी पर्यायमां पण
सर्वदर्शिता आपवानी ताकात नथी; सर्वदर्शिता आपवानी ताकात तो त्रिकाळी द्रव्यमां ज छे, माटे द्रव्यनो
आश्रय करीने परिणमवुं ते ज सर्वदर्शी थवानो उपाय छे.
जे सर्वदर्शित्व प्रगट्युं ते बधा पदार्थोने स्पष्ट देखे छे, दूरनी वस्तुने झांखी देखे ने नजीकनी वस्तुने
स्पष्ट देखे–एवो भेद तेनामां नथी. वळी, दूरनी वस्तुथी लाभ न माने पण शरीर के देव–गुरु–शास्त्र वगेरे
नजीकनी वस्तुथी लाभ माने–एवुं पण सर्वदर्शित्वशक्तिमां नथी. जेणे सर्वदर्शित्वसामर्थ्यनी प्रतीत करी छे ते
जीव कोई पण परवस्तुथी लाभ–नुकसान मानतो नथी. सर्वदर्शित्व तो आत्मदर्शनमय छे, तेनो संबंध पर साथे
नथी; तो पछी महाविदेह वगेरे दूरनी वाणीथी लाभ न थाय ने आ नजीकनी साक्षात् वाणीथी
(अनुसंधान पाना नं. २०७)