जाय छे, केमके पर्याय ते पोतानो व्यवहार छे तेने मान्यो नहि एटले एकांत मिथ्यात्व थई गयुं. ज्ञानी तो
पोताना द्रव्य अने पर्याय बंनेने बराबर जाणीने अभेद तरफ ढळे छे, एटले तेनी द्रष्टिमां अभेदनी मुख्यता ने
भेदनी गौणता छे. पण जे जीव पोताना द्रव्य–पर्यायने जाणतो ज नथी तेने तो मुख्य–गौण करवानुं रह्युं ज
क्यां? अनेकान्तथी द्रव्य–पर्याय बंनेने जाणीने अभेद द्रव्यद्रष्टि करतां भेदनो विकल्प तूटीने निर्विकल्प अनुभव
थाय छे, आ ज साधक–दशानी एटले के धर्मनी रीत छे. आ सिवाय बहारना क्रियाकांड तो दूर रह्या, पण भेद
उपरनी द्रष्टि रहे त्यांसुधी पण धर्म थतो नथी. अभेद द्रव्यनी द्रष्टिथी ज धर्म थाय छे.
एम नथी के पर्याय परने लीधे थाय छे! पर्याय पण पोतानो ज अंश छे, पण अहीं अभेद द्रव्यने ओळखाववा
माटे पर्यायने गौण करीने तेने व्यवहार कह्यो छे. ‘रागादि विकारी भावो पुद्गलना परिणाम छे’ –एम
अध्यात्मद्रष्टिथी समयसारादिमां कह्युं छे, पण त्यां तेनो आशय शुं छे ते समजवुं जोईए. त्यां तो क्षणिक
पर्यायने गौण करीने तेनुं लक्ष छोडाववा अने अभेद द्रव्यनी द्रष्टि कराववा माटे तेम कह्युं छे, कांई जीवनी
पर्याय परने लीधे थाय छे अथवा पुद्गलकर्म जीवने विकार करावे छे–एम कहेवानो त्यां आशय नथी. अज्ञानी
जीव पोताना मिथ्या अभिप्रायमांथी ऊंधो आशय काढीने शास्त्रना विपरीत अर्थ करे छे, पण शास्त्रमां तेवो
आशय छे ज नहि.
आ व्यवहार परना आश्रये नथी पण पोतानो ज अंश छे. द्रव्य अने पर्याय बंने निश्चयथी पोतानां ज छे.
पर्यायने व्यवहार कह्यो पण तेथी ते पर्याय कांई परने लीधे नथी थती. क्षायोपशमिकज्ञान वगेरे भावो के
रागादिभावो ते पण निश्चयथी जीवनो ज अंश छे, केमके ते जीवनी पर्यायमां थाय छे. पण अहीं अध्यात्म–
कथनीमां अभेद वस्तु बताववानुं प्रयोजन होवाथी भेदने–पर्यायने गौण कहेवामां आवे छे; भेदने गौण करीने
अभेदने मुख्य कहेवामां आवे तो ज अभेद वस्तु सारी रीते ओळखी शकाय छे; अने अभेद वस्तुने यथार्थ
ओळखीने तेनो आश्रय करवाथी ज जीवनुं कल्याण थाय छे, भेदबुद्धि तो अनादिनी छे, तेनाथी जीवनुं कल्याण
थतुं नथी.
पर्यायबुद्धि छे. लोकोने पर्याय ज प्रसिद्ध छे एटले के क्षणिक रागादि पर्यायने ज आखो आत्मा तेओ मानी रह्या
छे, पण रागरहित त्रिकाळी शुद्ध द्रव्यने तेओ जाणता नथी, तेथी ते मिथ्याद्रष्टि छे. तेने त्रिकाळ शुद्ध द्रव्यनुं ज्ञान
कराववा माटे अनादिअनंत एकरूप चैतन्यस्वभावने प्रधान करीने तेने निश्चयनयनो विषय कह्यो. ए रीते
अखंड जीवद्रव्यनुं ज्ञान कराववा माटे पर्यायाश्रित भेदने गौण करीने अभूतार्थ कह्या. अभेदद्रव्यनी द्रष्टिमां भेद
देखाता नथी, तेथी अभेदद्रष्टि कराववा माटे भेदने अभूतार्थ कह्या छे. परंतु, पर्यायने अभूतार्थ कही तेथी ते
वस्तुनुं स्वरूप ज नथी–एम नथी. पर्याय पोतानी छे तेने न जाणे ने एकला सामान्य द्रव्यने ज माने तो ते
पण एकांत मिथ्याद्रष्टि छे.
त्रिकाळी तत्त्वने जाणता नथी एवा जीवो पण पर्यायबुद्धि मिथ्याद्रष्टि छे.
प्रसिद्ध नथी, तेणे तो पर्यायनुं स्वरूप पण जाण्युं नथी. कर्म राग करावे