Atmadharma magazine - Ank 107
(Year 9 - Vir Nirvana Samvat 2478, A.D. 1952)
(Devanagari transliteration).

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: भाद्रपद : २००८ : आत्मधर्म–१०७ : २१९ :
एम माने तो तेणे रागपर्यायने पोतानी जाणी नथी. कर्मने लीधे राग न थाय, राग ते मारा कारणे थाय छे–
एम पर्यायने तो जाणे, पण रागपर्याय ते ज हुं छुं–एम अज्ञानी माने छे, रागरहित ज्ञानस्वभावी तत्त्व शुं छे
तेने अज्ञानी जाणतो नथी, अने ते स्वभावना ज्ञान विना कदी धर्म थतो नथी. तेथी ते अभेदस्वभावनी द्रष्टि
अने ज्ञान कराववा माटे अध्यात्म कथनीमां तेने मुख्य करीने निश्चय कह्यो छे. लोको कहे छे के मोटानो छेडो
पकडवो, तेम जेणे धर्म करवो होय तेणे मोटाने छेडो पकडवो; मोटुं कोण? के परनो तो पोतामां अभाव छे, ने
पर्याय क्षण पूरती ज छे, त्रिकाळ एकरूप रहेनारो चैतन्यशक्तिनो पिंड अभेद स्वभाव छे ते ज मोटो छे, तेनुं
अवलंबन करवाथी धर्म थाय छे; माटे धर्मीनी द्रष्टिमां ते अभेदस्वभावनी ज मुख्यता सदाय छे. अजीव
पदार्थोथी जीवने जुदो ओळखाव्या पछी हवे तो जीवमां अभेदस्वभावनी द्रष्टि कराववानी वात छे, तेथी मुख्य–
गौणनी वात समजावी छे.
मनुष्य ते जीव, राग करे ते जीव, अथवा घर–मकान वगेरेने जाणे ते जीव–ए प्रमाणे राग अने
क्षायोपशमिक ज्ञान वगेरे पर्यायोने ज लोको जीवतत्त्व मानी रह्या छे, पण ते तो बधा क्षणिक भावो छे, त्रिकाळ
टकनार जीवतत्त्व शुद्ध चैतन्यमय छे, –आवा जीवतत्त्वने लोको नथी जाणता. जुओ, अगियार अंग सुधी भणी
जाय, पण पोताना अभेद–स्वभावनी द्रष्टि न करे तो ते जीव पण मिथ्याद्रष्टि अज्ञानी ज रहे छे; अने शास्त्रनुं
भणतर कदाच विशेष न होय पण अंतरमां परिपूर्ण सामर्थ्यना पिंडरूप अभेदस्वभावने ज्ञानमां पकडीने
एकाग्र थाय तो ते जीव आराधक धर्मी छे.
पर्याय एक समयनी छे ने द्रव्य त्रिकाळ छे; पर्यायना सामर्थ्य करतां द्रव्यनुं सामर्थ्य अनंतगणुं छे. ते
द्रव्यना ज आश्रये आराधकपणुं थाय छे. आराधकपणुं पोते पर्याय छे, पण ते पर्याय प्रगटे छे द्रव्यना आश्रये!
माटे ज अभेदवस्तुनां गाणां गवाय छे, ने तेने ज प्रधान करीने निश्चय कह्यो छे, तथा भेदरूप पर्यायने गौण
करीने व्यवहार कह्यो छे.
राग–द्वेषादि विकार थाय छे ते पोतानी पर्याय छे अने ते पोताथी ज थाय छे; पण ते एक अंश छे,
आखी आत्मवस्तु ते अंशमां समाई जती नथी. माटे ते अंशनी बुद्धि छोडावीने अखंड वस्तुनी द्रष्टि कराववा
माटे ज अंशने अभूतार्थ कह्यो छे; पण विकार थाय छे ते परने लीधे थाय छे–एम कहेवानो आशय नथी. अहीं
तो, नित्य–अनित्य, द्रव्य–पर्याय, एक–अनेक, शुद्ध–अशुद्ध ईत्यादि रूपे अनेकांतवस्तु छे, तेमां कोना आश्रये धर्म
थाय छे ते समजाव्युं छे. आत्माने साधक बनाववा माटे अनेकान्तवस्तुमां पण मुख्य–गौण थाय छे. धर्मीनी
द्रष्टिमां सदाय अभेद शुद्धस्वरूपनी ज मुख्यता रहे छे, ने तेनी मुख्यताना आश्रये ज धर्म थाय छे भेदरूप
व्यवहार छे ते ज्ञान करवा माटे बराबर छे, पण धर्मीनी द्रष्टिमां तेनो आश्रय नथी. जो भेदने जाणे पण नहि
तो आखी वस्तुनुं यथार्थज्ञान थतुं नथी एटले मिथ्यात्व टळतुं नथी, अने जो भेदना आश्रये लाभ माने तो
पण अभेदवस्तुना आश्रय वगर मिथ्यात्व टळतुं नथी. भेद तेम ज अभेद ए बंने स्वरूपे वस्तुने जाणीने जो
अभेदनो आश्रय करे तो ज सम्यग्दर्शन अने अनेकान्तज्ञान थाय छे. जो द्रव्य अने पर्याय बंनेने यथार्थपणे
जाणे तो ते ज्ञान द्रव्य तरफ वळ्‌या वगर रहे नहि.
– [स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा ३१ – १२ना भावार्थ उपर पू. गुरुदेवश्रीना प्रवचनमांथी]
बंधभाव अने मोक्षभाव
जे भावे मोक्ष थाय ते भावथी बंधन न थाय; अने जे भावे बंधन थाय ते
भावथी मोक्ष न थाय. बंधभाव अने मोक्षभाव ए बंने भिन्न भिन्न छे.
प्रश्न :– शुभ–अशुभ भावो केवा छे?
उत्तर :– शुभ–अशुभ भावो पुण्य–पापने उत्पन्न करनारा छे, पण आत्मानी
शुद्धताने उत्पन्न करनारा नथी. शुभ लागणी ते पुण्यबंधननो भाव छे ने अशुभ
लागणी पापबंधननो भाव छे ए रीते ते बंने बंधन भावो छे, विकार छे, आत्माना
गुणमां ते मददगार नथी एटले शुभ–अशुभ भावो ते मोक्षनुं कारण नथी; मोक्षनुं
कारण तो शुद्ध आत्माना श्रद्धा–ज्ञान ने रमणतारूप वीतरागभाव छे, ते ज धर्म छे.