जीव शुं कार्य करी शके? अने शुं न करी शके?
आत्मा शुं काम करे तो तेने धर्म थाय अने शुं काम करे तो तेने अधर्म थाय? ते वात कहेवाय छे. प्रथम
बधांय तत्त्वो अनादिअनंत स्वयंसिद्ध पोतपोतानी अवस्थामां पलटी रह्यां छे. जगतमां दरेकेदरेक रजकणनी
क्रिया स्वतंत्र एनी मेळे थई रही छे. कोई आत्मा शरीरने चलावी शके नहि तेम ज स्थिर पण राखी शके नहि,
भाषा बोली शके नहि, कर्म बांधी शके नहि, पर जीवने मारी के बचावी शके नहि, सुखी–दुःखी करी शके नहि,
अशुभ के शुद्धभाव करी शके. ‘जीवो एकबीजाने सुखी–दुःखी करे, शरीर वगेरेनी क्रिया हुं करुं’ एम अज्ञानीए
अनादिनुं मान्युं छे, परंतु तेम थई शकतुं नथी. परने सुखी–दुःखी करवानी ताकात कोईमां छे ज नहि.
आ जगतमां दरेक आत्मा तेम ज दरेक रजकण स्वतंत्र भिन्न भिन्न छे; कोई तत्त्वो एकबीजा उपर
पदार्थोना अभावपणे टकेलो छे. ए प्रमाणे दरेक तत्त्व बीजा अनंत पदार्थोना अभावथी टकी रह्युं छे. एक
द्रव्यना स्वरूपनी बाह्य ज बीजा द्रव्यो लोटे छे, कोई द्रव्यमां कोई द्रव्य प्रवेशी जतुं नथी, एटले एक पदार्थमां
बीजा अनंत तत्त्वो कांई पण करे एम त्रणकाळमां बनतुं नथी. कोई एम कहे के, द्रव्य–गुणने तो बीजो न करे
पण पर्यायने बीजो करे, तो तेनी वात जूठी छे. आ द्रव्य–गुणनी वात नथी पण पर्यायनी ज वात छे. जेम
त्रिकाळ एकरूप छे, एटले तेमां कांई करवानुं नथी; पर्यायो नवी नवी थाय छे, ते पर्यायो त्रिकाळद्रव्य–गुणना
आधारे ज थाय छे, –एटले तेनो पण कोई बीजो कर्ता नथी. निमित्तोने लीधे नवी नवी पर्याय थाय छे–एवो
अज्ञानीनो भ्रम छे. एक द्रव्यनी वर्तमान हालत बीजा द्रव्यनी वर्तमान हालतमां कांई करे ए वात
अज्ञानीओए मानेली छे, वस्तुस्वरूप तेम नथी.