Atmadharma magazine - Ank 107
(Year 9 - Vir Nirvana Samvat 2478, A.D. 1952)
(Devanagari transliteration).

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: भाद्रपद : २००८ : आत्मधर्म–१०७ : २२१ :
कार्यनो कर्ता हुं नहि, मारा कार्यनो कर्ता हुं ने परना कार्यनो कर्ता पर–आम स्वाधीनता समजे तो परनां काम
करवानुं अभिमान छोडीने जीव स्व तरफ वळे अने आत्मानी संभाळ करे–एटले धर्म थाय. अज्ञानी जीवो
परना भरोसे पोताने भूली रह्या छे; तेओने पोताना स्वभावनो विश्वास अने संतोष नथी एटले क्यांक परनां
कार्य करीने त्यांथी संतोष लेवा मागे छे, पण परमांथी कदी आत्मानी शांति आवती नथी; एटले ते जीवो परनुं
करवानी मिथ्या मान्यताथी मफतना आकुळव्याकुळ अने दुःखी थाय छे. ज्ञानी तो परथी भिन्न निज स्वभावने
जाणीने तेमां संतुष्ट छे, एटले परनां कार्य करवानुं मिथ्या अभिमान तेने थतुं नथी, ते शांति माटे पोताना
स्वभावमां एकाग्र थाय छे.
जडनुं कार्य; ज्ञानीनुं कार्य; अज्ञानीनुं कार्य
शरीर वगेरेनां दरेक रजकण तेनी स्वतंत्र योग्यताना सामर्थ्यथी पोतानी क्रिया करी रह्यां छे, ते जडनुं
कार्य छे; आत्मा तेनी क्रियाने करतो नथी.
अज्ञानी जीव पोताना ज्ञाता–वीतरागी स्वभावने चूकीने ‘आ जडनी क्रिया हुं करुं ने राग हुं करुं’ एम
मानीने पोताना मिथ्यात्वभावने उत्पन्न करे छे. –आ अज्ञानीनुं कार्य छे.
धर्मी–ज्ञानी जीव तो ते परनी क्रियाने हुं करुं एम मानता नथी, तेम ज क्षणिक रागादि भावोनुं कर्तापणुं पण
स्वभावद्रष्टिमां स्वीकारता नथी, स्वभावद्रष्टिथी निर्मळ पर्याय प्रगटे छे तेना ज ते कर्ता छे. –आ ज्ञानीनुं कार्य छे.
जुओ, त्रण प्रकारनां कार्य थया–
(१) जडनुं कार्य, तेनो कर्ता जड छे, आत्मा तेनो कर्ता नथी; तेथी तेनाथी तो आत्माने धर्म थतो नथी
ने अधर्म पण थतो नथी.
(२) अज्ञानी जीव ज्ञानस्वभावने चूकीने जडनुं अने रागनुं कर्तापणुं मानीने पोताना
मिथ्यात्वभावरूपी कार्यने करे छे, ते अधर्मकार्य छे.
(३) ज्ञानी जीव पोताना चिदानंदस्वभावनी द्रष्टिथी सम्यग्दर्शनादि निर्मळ पर्यायरूप कार्यने करे छे, ते
धर्मकार्य छे.
आत्मा जडनुं के परनुं कांई कार्य करी शके ते मान्यता तो स्थूळ अज्ञान छे. ए मान्यता छूटी गया पछी,
अहीं तो ते उपरांतनी वात छे. विकार मारुं कार्य ने हुं तेनो कर्ता–एम जे विकार साथे आत्मानुं कर्ताकर्मपणुं
स्वीकारे ते पण अज्ञानी छे. आत्मा ज्ञायकमूर्ति निर्विकार छे, ते विकारनो कर्ता नथी–एम समजाववा माटे अहीं
शुद्ध द्रव्यद्रष्टिथी ते विकारने आचार्यदेवे पुद्गलना परिणाम कही दीधा छे, अने ते आत्माथी अन्य छे.
विकारभावोने आत्माथी अन्य केम कह्या?
आत्मानी अवस्थामां जे राग–द्वेषादि विकारी भावो थाय छे ते कांई रूपी नथी तेम ज ते अजीवमां थता
नथी पण आत्मानी ज अवस्थामां थाय छे अने अरूपी छे, छतां अहीं द्रव्यद्रष्टिमां तेने आत्माथी बीजी वस्तु
कीधी छे; केमके आत्माना शुद्धस्वभावनी अपेक्षाए ते विकारभाव भिन्न छे माटे ते अन्य वस्तु छे. ते विकारभावो
शुद्ध आत्माना आश्रये थता नथी पण जडना लक्षे थाय छे. धर्मात्मानी द्रष्टि आत्माना शुद्ध स्वभाव उपर छे अने
ते स्वभावमांथी विकारभाव आवता नथी तेथी धर्मी तेनो कर्ता थतो नथी, माटे तेने जड–पुद्गलपरिणाम कहीने
आत्माथी अन्य वस्तु कहेवामां आवी छे. पण ते परिणाम कांई पुद्गलमां थतां नथी तेम ज कर्म पण करावतुं
नथी. आत्मानी पर्यायमां ते थाय छे, पण अहीं ते पर्यायबुद्धि छोडावीने शुद्ध द्रव्यनी द्रष्टि कराववा माटे तेने
आत्माथी अन्य कह्यां छे. खरेखर अन्य कोने कहेवाय? –के जे शुद्ध आत्मानी द्रष्टि करे तेने; अज्ञानीने तो विकार
अने आत्मस्वभावनी भिन्नतानुं भान नथी, ते तो विकार अने आत्मस्वभावने एकमेक मानीने विकारनो कर्ता
थाय छे तेथी तेने विकार आत्माथी अन्य न रह्यो. ज्ञानीनी द्रष्टि विकारथी भिन्न शुद्ध आत्मा उपर छे, ते शुद्ध
द्रष्टिमां ज्ञानी विकारनो कर्ता थतो नथी, तेथी तेने विकार ते आत्माथी अन्य वस्तु छे. आ रीते विकारने
आत्माथी अन्य वस्तु कहीने आचार्यदेवे शुद्ध आत्मद्रव्यनी द्रष्टि करावी छे. एवी द्रष्टि कर्या वगर कोई जीव एम
माने के विकार आत्माथी अन्य छे–तो तेने वस्तुस्वरूपनुं भान नथी.
अहो! चैतन्यपिंड आत्माना आश्रये तो शुद्ध दर्शन–ज्ञान–चारित्रना अरागीभाव ज प्रगटे एवो तेनो
स्वभाव छे; पण अज्ञानीने तेनी रुचि नथी तेथी बाह्यनी रुचि वडे ते पोतानी अवस्थामां विकारभाव प्रगट
करे छे अने तेनो ते