स्वभावनी रुचिमां विकारनो कर्ता थतो नथी; ते तो पोतानी स्वभावद्रष्टिना जोरे अल्पकाळमां विकारनो सर्वथा
अभाव करीने सिद्ध थाय छे. सम्यग्दर्शननो विषय तो पुण्य–पापथी अन्य वस्तु छे; जे पुण्य–पापनी लागणी थाय
ते सम्यग्दर्शनना विषयभूत चैतन्यनो स्वभाव नथी माटे परमार्थे ते विकारी लागणीओ आत्माथी अन्य छे.
उपर कह्युं ते प्रमाणे पोताना शुद्ध आत्मस्वभावनुं भान थतां, विकार साथे पण कर्ताकर्मपणुं छूटीने
भक्ति वगेरेना शुभरागथी के बहारनी क्रियाथी आत्मानुं कल्याण थवानुं मानी ल्ये तेने धर्मनुं भान नथी.
बहारनी क्रियाओ तो जडथी थाय छे, अने शुभराग थाय ते विकार छे, ते विकारनो हुं कर्ता ने ते मारुं कार्य एम
जे माने ते पण अधर्मी छे. शुद्ध देव–गुरु–शास्त्र वगेरे कोई पण पर तरफनो राग ते विकार छे; जे जीव ते रागनी
रुचि अने उत्साह करीने तेने ज धर्म मानी रह्यो छे पण पोताना शुद्ध आत्मानी रुचि अने उत्साह करतो नथी,
तेने आचार्य–भगवान समजावे छे के अरे जीव! जडनी क्रिया तो ताराथी जुदी चीज छे अने पुण्य–पापना भाव
पण आत्मस्वभावथी अन्य वस्तु छे, केमके जो ते अन्य न होय तो आत्मामांथी ते टळीने कदी रागरहित
सिद्धदशा थाय नहि. सिद्धदशामां पुण्य–पापना भाव होता नथी माटे ते आत्मानुं खरुं कर्तव्य नथी. आत्मा
पोताना शुद्धस्वभावमां तन्मय थईने वीतरागभावे परिणमे ते ज तेनुं खरुं कर्तव्य छे, अने ते ज धर्म छे.
नहि. संयोग शुं करे? बहारमां साक्षात् भगवाननो संयोग होवा छतां पण अज्ञानीने अंदरथी पुण्यनी रुचि
अने तेनी कर्तृत्वबुद्धि गई नहि ने आत्माना स्वभावनी रुचि थई नहि; तेथी पोतानी ऊंधी द्रष्टिए विकारनी
उत्पत्ति थई, ने संसारमां रखडयो. ‘द्रष्टि तेवी सृष्टि’ सृष्टि एटले पर्यायनी उत्पत्ति; जेवी द्रष्टि होय तेवी
पर्यायनी उत्पत्ति थाय. गमे ते संयोगमां ऊभो होय पण ते वखते जीवनी द्रष्टि क्यां पडी छे ते जोवानुं छे. जो
पोताना शुद्ध चैतन्य–स्वभाव उपर द्रष्टि होय तो पर्यायमां सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप शुद्धतानी उत्पत्ति थाय
छे अने जो विकार उपर ने संयोग उपर द्रष्टि होय तो पर्यायमां मिथ्यात्व वगेरे विकारनी उत्पत्ति थाय छे. ए
रीते द्रष्टि तेवी सृष्टि छे, जेवी द्रष्टि होय तेवुं कार्य थया करे छे.
भाई! तुं क्षणिक विकारना कर्ताकर्मनी बुद्धि छोड; तारो स्वभाव क्षणिक विकार जेटलो नथी. पहेलांं पोताना
यथार्थ वस्तुस्वभावने ख्यालमां लेवो जोईए, तेनी रुचि अने विश्वास करवो जोईए; तेना ज शरणे धर्म थाय
छे. जेना शरणे धर्म थाय छे ते वस्तुना भान विना ज्ञानने क्ये ठेकाणे थंभावशे? अने कोनुं शरणुं लईने धर्म
करशे?
स्वभावना वलणनी मुख्यता खसीने रागनी मुख्यता थई जाय तो साधकदशा रहेती नथी. एक समय पण
स्वभावना वलणनी मुख्यता खसीने विकारनी मुख्यता थाय तो ते जीव मिथ्याद्रष्टि छे. शुभरागनी उत्पत्ति
वखते जो ते रागनी ज मुख्यता भासे अने स्वभावनी मुख्यता न भासे तो तेने स्वभावथी अन्यवस्तुनी
एटले के जडकर्मनी उत्पत्ति थाय छे पण धर्मनी उत्पत्ति थती नथी. धर्मी जीवनी द्रष्टिमां त्रिकाळी शुद्धस्वभावनी
ज सदाय मुख्यता छे, ने ते ज सम्यग्दर्शन छे. स्वभावनी मुख्यतामां तेने क्षणेक्षणे निर्मळदशानी उत्पत्ति थाय छे
ते धर्मीनुं धर्मकर्तव्य छे. छ खंडनुं राज्य अने छन्नु हजार राणीओना वृंदमां पडेला