Atmadharma magazine - Ank 107
(Year 9 - Vir Nirvana Samvat 2478, A.D. 1952)
(Devanagari transliteration).

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: भाद्रपद : २००८ : आत्मधर्म–१०७ : २२३ :
सम्यग्द्रष्टि चक्रवर्तीने अंर्तद्रष्टिमांथी स्वभावनी मुख्यता एक क्षण पण खसती नथी ने विकारनी मुख्यता थती
नथी. अहो! धर्मीने पर्याये पर्याये सदा स्वभावनी ज अधिकता छे, तेनी ज महत्ता छे, तेनो ज आदर छे, कोई
पण पर्याय वखते द्रष्टिमांथी ‘हुं शुद्धस्वभाव छुं’ एवुं वलण खसतुं नथी, एटले समये समये तेने निर्मळ
पर्यायनी उत्पत्तिरूप धर्म थाय छे. आ प्रमाणे त्रिकाळ शुद्ध स्वभाव अने क्षणिक विकार–ए बंनेने जुदा जाणीने
स्वभावनी मुख्यता करीने ते तरफ वळवुं तेनुं नाम भेदविज्ञान छे अने एवा भेदविज्ञानथी ज धर्म थाय छे.
सत्यस्वभावनो आदर अने तेनुं फळ
हुं क्षणिक राग जेटलो नथी पण रागरहित ज्ञातास्वरूप छुं–एवा वलणमां स्वसन्मुखद्रष्टि थतां विकारनी
मुख्यता न भासे तेनुं नाम सम्यग्दर्शन छे. पहेलांं पात्र थईने अंतरना हकारपूर्वक आ वातनुं वारंवार श्रवण
करवुं जोईए. हे जीव! सत्समागमे सत्यनुं श्रवण करीने एकवार यथार्थ रुचिथी हा पाड. सत्यस्वभावनी ‘हा’
पाडतां पाडतां तेनी ‘लत’ लागशे एटले ‘हा मांथी हालत’ थई जशे. जेवो पोतानो स्वभाव छे तेनी रुचि
करीने हा पाडतां तेवी हालत प्रगटी जशे. सत्यस्वभावनी हा पाडीने तेनो आदर करतां करतां सिद्धदशा थई
जशे; जीवने ज्यां आदरबुद्धि होय ते तरफ तेनो प्रयत्न वारंवार वळ्‌या करे छे. जेणे स्वभावनी हा पाडीने तेनो
आदर कर्यो तेना श्रद्धा–ज्ञानादिनो पुरुषार्थ स्वभाव तरफ वळीने अल्पकाळमां सिद्धदशा थया विना रहे नहि.
जेणे सत्यस्वभावनी ना पाडीने तेनो अनादर कर्यो अने विकारनो आदर कर्यो ते जीव नरक–निगोददशाने
पामशे. आत्मस्वभावनी आराधनानुं फळ सिद्धदशा छे अने आत्मस्वभावनी विराधनानुं फळ निगोददशा छे.
वचली चार गतिनो काळ बहु अल्प छे. अहो! सत्यवस्तु स्वभावने लक्षमां लईने रुचिपूर्वक तेनी हा पाडवामां
पण अपूर्व पात्रता छे, ने तेना फळमां सादिअनंत काळ सुधी सिद्धदशानां अपूर्व सुखनी प्राप्ति थाय छे.
अज्ञानीनी कर्ताकर्मनी मिथ्याप्रवृत्ति
जीवनो एकरूप ज्ञायकस्वभाव छे तेमां क्रोधादिनी लागणी नथी. क्रोधादि अशुभभाव के दयादि शुभभाव
ते बंने आस्रव छे, जीवना स्वभावथी भिन्न छे. हुं शरीरादि जडनी क्रियानो कर्ता छुं एवी बुद्धि ते तो बहु स्थूळ
अज्ञान छे; परंतु हुं क्रोधादि विकारनो कर्ता अने ते क्रोधादि मारुं कार्य–एम विकारना कर्ताकर्मपणानी बुद्धि पण
अज्ञानथी ज उत्पन्न थाय छे. अज्ञानीने एवी कर्ताकर्मनी प्रवृत्ति अनादिथी चाली आवे छे, ते ज अधर्म अने
संसारनुं मूळ छे. ते कर्ताकर्मनी प्रवृत्ति क्यारे टळे ते वात अहीं आचार्यदेवे समजावी छे. चैतन्यमूर्ति आत्माने
अने क्रोधादिक भावोने निश्चयथी एकवस्तुपणुं नथी, बंनेनो स्वभाव भिन्न भिन्न छे, –आ प्रमाणे जीव ज्यारे
पोताना आत्माने आस्रवोथी भिन्न जाणीने भेदज्ञान करे छे त्यारे अज्ञानथी उत्पन्न थयेली कर्ताकर्मनी प्रवृत्ति
छूटी जाय छे. विकारने पोताना स्वभावथी भिन्न जाणीने ज्यां स्वभाव तरफ वळी गयो त्यां विकार साथे
कर्ताकर्मपणुं क्यांथी रहे?
अहीं तो आचार्यदेवे क्रोधादि भावोने आत्माथी भिन्न वस्तु कही छे. आत्माना स्वभावना आश्रये जे
निर्मळ पर्याय प्रगटी तेमां क्रोधादि भावोनी नास्ति छे. क्रोध ते त्रिकाळी द्रव्यरूप वस्तु नथी पण क्षणिक
पर्यायरूप वस्तु छे. पहेलांं ज्यारे आत्माना स्वभावनी अरुचि हती त्यारे जीव क्रोधादि भावोनो कर्ता थतो
हतो; शुद्धस्वभावनुं भान थया पछी जीव क्रोधादि भावोनो कर्ता थतो नथी. आ तो अंतरनी द्रष्टिनी ऊंडी वात
छे. बहारनी क्रिया उपरथी के मात्र रागनी मंदता उपरथी आवी द्रष्टिनुं माप नीकळे तेम नथी.
विकारना ग्रहण – त्यागथी पण निरपेक्ष आत्मस्वभाव
आत्मानो स्वभाव तो शुद्ध चैतन्यमूर्ति अनाकुळ सुखस्वरूप छे अने क्रोधादि आस्रवो तो आकुळतारूप
छे, ए रीते बंनेनो स्वभाव भिन्न भिन्न होवाथी आस्रवो आत्माथी जुदा छे. –आ प्रमाणे जाणीने आत्माना
स्वभाव तरफ वळतां आस्रवोनो निषेध थई जाय छे. खरेखर विकारनो पण नाश करवो पडतो नथी, पण ज्यां
आत्मा पोताना स्वभाव तरफ वळ्‌यो त्यां विकारनी उत्पत्ति ज थती नथी, एटले आत्माए विकारनो नाश कर्यो
एम कहेवाय छे. दरेक आत्मामां ‘त्यागोपादानशून्यत्व’ नामनी शक्ति छे एटले आत्मा स्वभावथी विकारनुं
ग्रहण के त्याग करतो नथी. आत्मा परना तो ग्रहण के त्यागथी रहित छे ने खरेखर
(अनुसंधान पाना नं. २७)