Atmadharma magazine - Ank 107
(Year 9 - Vir Nirvana Samvat 2478, A.D. 1952)
(Devanagari transliteration).

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: २२४ : आत्मधर्म–१०७ : भाद्रपद : २००८ :
देखो.रे.देखो! चैतन्यनिधाने देखो!
सुपात्र जीवोने संबोधीने आचार्यदेव कहे छे के : अरे जीव! तने चैतन्यनां एवा निधान बतावुं के बीजी
कोई चीजनी तारे जरूर न पडे....तारा चैतन्यनो महिमा देखतां ज तने परनो महिमा छूटी जशे.
अनंतधर्मस्वभावी तारो आत्मा ज चैतन्यमूर्ति भगवान छे, तने कोई बीजानी जरूर नथी. तुं पोते ज
दुनियाना निधानने जोनारो छे. सदाय अल्पज्ञ–सेवक ज रह्या करे एवो तारा आत्मानो स्वभाव नथी, तारो
आत्मा तो सर्वज्ञनो समोवडियो छे; जेटलुं सर्वज्ञे कर्युं तेटलुं करवानी ताकात तारामां पण भरी छे.
अहो! आचार्यदेव चैतन्यनां एवा निधान बतावे छे के बीजी कोई चीजनी जरूर ज न पडे. जे जीव
आवी शक्तिवाळा निज आत्मानी प्रतीत करे तेने कोई निमित्तना के विकल्पना आश्रयनी श्रद्धा ऊडी जाय छे,
पर्यायबुद्धि छूटी जाय छे ने अनंत चैतन्यशक्तिनो पिंड तेनी प्रतीतमां आवी जाय छे... ते सम्यग्द्रष्टि थईने
मोक्षमार्गे विचरवा मांडे छे...अंर्तद्रष्टिथी ते पोते ज पोताने त्रणलोकना नाथ परमेश्वर तरीके देखे छे.
श्री आचार्यभगवान कहे छे के हे भाई! उघाड...रे... उघाड! तुं तारा ज्ञानचक्षुओने उघाड. तारी आंख
उघाडीने चैतन्यनिधानने देख. सर्वज्ञभगवान मन–वाणी–देहथी पार एवी ऊंडी ऊंडी खीणमां लई जईने
चैतन्यनां अपूर्व निधान बतावे छे; तेनो विश्वास करीने हे जीव! तारा ज्ञानचक्षुमां रुचिनां अंजन आंज तो
तने तारा चैतन्यनिधान देखाय.
अज्ञानथी अंध थयेला जीवो पोतानी पासे ज पडेला निजनिधानने देखता नथी, श्रीगुरु तेने
सम्यक्श्रद्धारूपी अंजन आंजीने तेनां निधान बतावे छे के, जो! तारा निधान तारा अंतरमां ज पड्या छे;
बाह्यद्रष्टि छोडीने अंतरमां द्रष्टि कर तो सिद्धभगवान जेवा निधान तारामां भर्या छे ते तने देखाशे. एक
चैतन्यनी प्रतीत करतां अनंत सिद्धभगवंतो, केवळीओ अने संतोनी बधी ऋद्धि तने तारामां ज देखाशे, ते
ऋद्धि तारे क्यांय बीजे नहि शोधवी पडे. संत–महंतो जे ऋद्धि पाम्या ते पोताना चैतन्यमांथी ज पाम्या छे, कांई
बहारमांथी नथी पाम्या. तारा चैतन्यमां पण ए बधी ऋद्धि भरी छे, आंख उघाडीने अंतरमां जो तो ते देखाय.
पण जो परमांथी तारी ऋद्धि लेवा जईश तो आंधळो थईने घोर संसाररूपी जंगलमां भटकीश. अहीं
आचार्यप्रभु करुणा करीने भवभ्रमणथी छूटकारानो मार्ग बतावे छे के अंतर्मुख थईने निजशक्तिनी संभाळ कर
तो भवभ्रमणथी छूटकारो थाय.
भवभ्रमणथी थाकेला जीवोने श्री गुरु कहे छे के :–
देखो.रे.देखो! अंतरमां चैतन्यनिधाने देखो!
–प्रवचनमांथी.
शुद्धता केम थाय?
आत्माने शुद्धता केम थाय? –के शुद्धात्मामां प्रवृत्ति करे तो.
शुद्धात्मामां प्रवृत्ति क्यारे थाय? –के शुद्धात्माने जाणे तो.
कोई बहारनी क्रियाथी के रागमां प्रवृत्तिथी आत्माने शुद्धता थती नथी
पण शुद्धात्मामां प्रवृत्तिथी ज आत्माने शुद्धता थाय छे. –प्रवचनमांथी