Atmadharma magazine - Ank 107
(Year 9 - Vir Nirvana Samvat 2478, A.D. 1952)
(Devanagari transliteration).

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: भाद्रपद : २००८ : आत्मधर्म–१०७ : २१३ :
त्रणकाळना संतोनो तेणे विरोध कर्यो छे; ए रीते परनुं कर्तृत्व माननारा एकांतवादी जीवनुं अनंतु वीर्य ऊंधी
श्रद्धामां, ऊंधा ज्ञानमां ने ऊंधा चारित्रमां रोकाई गयुं छे, तेथी ते अनंत संसारमां रखडे छे. अनेकान्तनुं फळ
मोक्ष छे ने एकांतनुं फळ संसार छे. एकांतवादीने आचार्यदेवे ‘पशु’ कह्यो छे केमके ते पोताना आत्मस्वभावने
परथी भिन्नपणे नथी देखतो, पण कर्म वगेरे परने ज आत्मापणे देखे छे. अनेकान्तवादी तो पोताना आत्माने
परथी भिन्नपणे साधे छे. अनेकान्तमां घणी गंभीरता छे.
‘हुं परनुं करुं’ एनो अर्थ ए थयो के मारुं अस्तित्व परमां छे, एटले के हुं मारापणे नथी. अने जेम ‘हुं
मारापणे नथी’ तेम जगतनुं कोई तत्त्व पोतापणे नथी–एम पण तेमां गर्भितपणे आवी गयुं; एटले तेना
अभिप्रायमां जगतनो कोई पदार्थ सत् रह्यो ज नहि; ए रीते ‘हुं परनुं करुं’ एवा ऊंधा अभिप्रायमां त्रण
जगतना सत्नुं खून थाय छे, तेथी ते ऊंधा अभिप्रायने महान पाप कह्युं छे. जगतना पदार्थो तो जेम छे तेम
सत् छे, तेमनो तो कांई अभाव थतो नथी, पण ऊंधो अभिप्राय सेवनार जीवने पोतानी पर्यायमां मिथ्यात्वनुं
महापाप ऊभुं थाय छे. जो आ अनेकान्तथी वस्तुस्वरूपने समजे तो बधा ऊंधा अभिप्रायो छूटी जाय. हुं
मारापणे सत् छुं ने पर परपणे सत् छे, हुं परपणे असत् छुं ने पर मारापणे असत् छे–एम समजतां क्यांय
परावलंबननो भाव रहेतो नथी, स्वावलंबने एकली वीतरागता ज प्रगटे छे. आखुं जगत एम ने एम
पोतपोताना स्वरूपमां बिराजी रह्युं छे, तेमां क्यां राग ने क्यां द्वेष? राग–द्वेष क्यांय छे ज नहि, हुं तो
बधायनो जाणनार ज छुं, सर्वज्ञत्वशक्तिनो पिंड छुं–एम धर्मी जाणे छे.
आ आत्मवैभवनुं वर्णन चाले छे. पोतामां ज स्थिर रहीने एक समयमां त्रणकाळ त्रणलोकने जाणे
एवो ज्ञानवैभव आत्मामां भर्यो छे. जो आत्मानी सर्वज्ञत्वशक्तिनो विश्वास करे तो क्यांय फेरफार करवानी
वात ऊडी जाय छे. ‘निमित्त आवे तो कार्य थाय ने निमित्त न होय तो कार्य न थाय’ एवी जेनी मान्यता छे
तेने सर्वज्ञत्वशक्तिनी प्रतीत नथी. ‘सर्वज्ञता’ कहेतां ज बधा पदार्थोनुं क्रमबद्ध परिणमन सिद्ध थई जाय छे. जो
पदार्थनी त्रणेकाळनी पर्यायो चोक्कस क्रमबद्ध न होय ने आडीअवळी थती होय तो सर्वज्ञता ज सिद्ध थई न
शके; माटे सर्वज्ञता कबूल करनारे आ बधुं कबूल करवुं ज पडशे.
आत्मामां सर्वज्ञशक्ति त्रिकाळ छे; ते सर्वज्ञशक्ति आत्मज्ञानमय छे. आत्मा पर साथे तन्मय थईने
परने नथी जाणतो पण स्वमां तन्मय रहीने जाणे छे. कोई परना कारणे सर्वज्ञत्वशक्ति परिणमती नथी पण
आत्माना आश्रये ज परिणमे छे, आत्मसन्मुख रहीने आत्माने जाणतां लोकालोक जणाई जाय छे. माटे
सर्वज्ञत्वशक्ति आत्मज्ञानमय छे; जेणे आत्माने जाण्यो तेणे सर्व जाण्युं. लोकालोकने जाणवा छतां
सर्वज्ञत्वशक्ति तो आत्मज्ञानमय ज छे, लोकालोकने कारणे केवळज्ञान नथी. आ वात सर्वदर्शित्वशक्तिना
वर्णनमां विस्तारथी आवी गई छे ते प्रमाणे अहीं पण जाणवुं.
हे जीव! तारा ज्ञानमात्र आत्माना परिणमनमां अनंतधर्मो एक साथे ऊछळी रह्या छे, तेमां ज डोकियुं
करीने तारा धर्मने शोध, तारा धर्मने क्यांय बहारमां न शोध. जेणे पोतानी सर्वज्ञतानी प्रतीत करी ते जीव
देहादिनी क्रियानो ज्ञाता रह्यो. परनी क्रियाने फेरववानी वात तो दूर रही पण पोतानी क्रियावती शक्तिथी
आत्मानुं जेम क्षेत्रांतर थाय तेने पण ज्ञान फेरवतुं नथी, मात्र जाणे ज छे. ‘सर्वज्ञता’ कहेतां दूर के नजीकना
पदार्थने जाणवामां भेद न रह्यो; पदार्थ दूर हो के नजीक हो तेने लीधे ज्ञान करवामां कांई फेर पडतो नथी. दूरना
पदार्थने नजीक करवा के नजीकना पदार्थने दूर करवा ते ज्ञाननुं कार्य नथी, पण नजीकना पदार्थनी जेम ज दूरना
पदार्थने पण स्पष्ट जाणवानुं ज्ञाननुं कार्य छे. जगतना विशेष भावोने एकसरखी रीते ज्ञान जाणे छे. केवळी
भगवानने समुद्घात थवा पहेलांं तेने जाणवारूप परिणमन थई गयुं छे; भविष्यनी अनंत अनंत सुख–
पर्यायोनुं वेदन थया पहेलांं सर्वज्ञत्वशक्ति तेने जाणवापणे परिणमी गई छे. भगवान जिनेन्द्रदेवनी पूजामां
‘सीमंधर जिन चरणकमल पर...’ वगेरे बोलवानी क्रिया ज्ञान करतुं नथी, तेम ज चोखा वगेरे आठ प्रकारनी
चीजो भेगी करवी ते कार्य ज्ञाननुं नथी, अने शुभ विकल्प थाय ते कार्य पण ज्ञाननुं नथी, ज्ञाननुं कार्य तो मात्र
‘जाणवुं’ ते ज छे; तेमां पण अधूरुं जाणवारूपे परिणमे तेवुं ज्ञाननुं मूळ स्वरूप नथी, सर्वने जाणवारूपे परिणमे
एवुं ज्ञाननुं स्वरूप छे, –एम अहीं सर्वज्ञत्वशक्ति वर्णवीने आचार्यदेवे बताव्युं छे.