थवानी जेनी मान्यता छे ते जीव मिथ्याद्रष्टि, विषयोनी बुद्धिवाळो छे. स्वभावनी बुद्धिवाळो धर्मी जीव तो एम
जाणे छे के माथुं कापनार कसाई के दिव्य वाणी संभळावनार वीतरागदेव–ए बंने मारा ज्ञानना ज्ञेयो छे. ते
ज्ञेयोने कारणे मने कांई लाभ–नुकसान नथी तेमज ते ज्ञेयोने कारणे हुं तेने जाणतो नथी. राग–द्वेष वगर
समस्त ज्ञेयोने जाणी लेवानी सर्वज्ञत्वशक्ति मारामां छे. कदाच अस्थिरतानो विकल्प आवी जाय तो पण धर्मीने
अल्पकाळमां तेमने पूर्ण सर्वज्ञता खीली जाय छे.
साक्षात् चैतन्यमूर्ति निर्मळस्वरूप आत्माने समज्या विना जन्म–मरण टाळवानो कोई अन्य मार्ग
चैतन्यस्वभावनुं भान नथी ते जीव मन–वाणी–देहनी प्रवृत्तिमां अथवा पुण्यमां धर्म मानीने अटके छे, पण तेनुं
फळ तो बंधनरूप संसार छे. जेने आ वातनुं लक्ष नथी तेणे बाह्य प्रवृत्तिमां ज कृतकृत्यता मानी होय छे; तेथी
तेनी मान्यताथी ऊलटी वात ज्ञानी ज्यारे संभळावे के ‘बाह्य प्रवृत्तिथी के पुण्यथी धर्म न थाय,’ त्यारे ते
सांभळतां सत्यतत्त्वनो ते विरोध करे छे.
तेओ राड नाखे छे; पण एने खबर नथी के ज्ञानी तेना हितनी वात कहे छे.
चूसणियाथी साचो स्वाद नहि आवे माटे तेने छोड अने तारा स्वाधीन स्वभावनी अंतरथी हा पाड, तो
स्वभावना संवेदनमां तने सुखनो साचो स्वाद आवे.
छे. पण प्रभु! विरोध न कर...ना न पाड...आ तो तारी प्रभुता तने समजावाय छे. तारो अनंत महिमावान
स्वभाव अमे तने समजावीए छीए त्यारे तुं तेनो विरोध करीने असत्यनो आदर करे–ए केम शोभे?
धर्म माने छे तेने परम धर्मपिता श्री तीर्थंकरदेव शिखामण आपे छे के अरे जीव! तुं अमारी जातनो छो, आ
विकारथी तारी शोभा नथी. –आम कहीने ते अज्ञानी जीवने पुण्य–पापरहित तेनो ज्ञानस्वभाव समजावे छे.
रखडपट्टी टळशे नहि. माटे जे जीव हवे आ रखडपट्टीथी थाक्यो होय तेणे धीरो थईने अंतरमां आ वात
समजवा जेवी छे.