आसो: २४७८ : २३५ :
जे ज्ञान एम माने के ‘आत्मा सर्वथा क्षणिक ज छे अथवा सर्वथा नित्य ज छे’ –तो ते ज्ञानना
विषयभूत थाय एवी कोई वस्तु जगतमां नथी, एटले ते ज्ञान मिथ्या छे, ते मिथ्याज्ञानमां नय पण होय नहि.
नय तो क्यारे कहेवाय? के वस्तुनुं प्रमाणज्ञान थयुं होय त्यारे नय कहेवाय. पण वस्तुना भान वगर एकांत
नित्य के एकांत क्षणिक माने तो नय कहेवाय नहि, ते तो कुनय छे. मिथ्याज्ञानमां नय न होय, मिथ्याज्ञानने
विषय पण न होय, परंतु मिथ्याज्ञानमां निमित्त तो होय.
एकेक आत्मा अनंत धर्मोथी परिपूर्ण छे, आवडा मोटा आत्माने आखो जाण्या विना श्रद्धा–ज्ञानमां
साचुं बळ आवे नहि एटले ते सम्यक् थाय नहि. आत्मानो जेवडो महिमा छे तेवडो जाणतां श्रद्धा–ज्ञान तेनी
सन्मुख थईने सम्यक् थई जाय छे. जेम एकेक आत्मामां पोताना अनंत धर्मो छे तेम एकेक पुद्गलपरमाणुमां
पण तेना अनंतधर्मो छे; जगतना दरेक द्रव्यमां पोतपोताना अनंतधर्मो छे, पण अहीं तो आत्मानी ज
प्रधानता छे. बधाने जाणनारो तो आत्मा छे, आत्मा वगर ‘बीजानुं अस्तित्व छे’ एम जाणे कोण? माटे
‘जाणनार’ तरीके आत्मानो महिमा छे. आत्मा ज बधाने जाणे छे माटे सर्व द्रव्यमां आत्मा ज उत्तम पदार्थ छे.
–आवा आत्माने जाणवो ते मोक्षनुं कारण छे.
–एवा आत्माने जाणवा माटे जिज्ञासु शिष्ये प्रश्न पूछ्यो हतो, तेना उत्तरमां ‘अनंतधर्मोवाळुं
आत्मद्रव्य छे’ एम कहीने पछी आचार्यदेवे ४७ धर्मोथी तेनुं वर्णन कर्युं छे; तेमां २० मा बोलमां
‘सर्वगतनयथी सर्ववर्ती’ कहीने ज्ञाननुं परिपूर्ण जाणवानुं सामर्थ्य बताव्युं अने २१ मा बोलमां
‘असर्वगतनयथी आत्मवर्ती’ कहीने ज्ञान परमां जईने जाणतुं नथी पण पोतामां रहीने ज जाणे छे––एम
बताव्युं.
अहीं २१ मा असर्वगतनयथी आत्मानुं वर्णन पूरुं थयुं. ।। २।।
आ परिशिष्टमां ४७ नयोथी आत्मानुं वर्णन कर्या पछी, ‘आत्मा केवो छे’ ते विषेनुं कथन पूरुं करतां
आचार्यदेव एम कहेशे के: ‘आ रीते स्यात्कारश्रीना वसवाटने वश वर्तता नयसमूहो वडे जुए तोपण, अने
प्रमाण वडे जुए तोपण, स्पष्ट अनंत धर्मोवाळा निज आत्मद्रव्यने अंदरमां शुद्धचैतन्यमात्र देखे छे ज. ’ ––
एटले कोई पण नयथी आत्मानुं वर्णन कर्युं होय पण तेनुं तात्पर्य तो अंदरमां शुद्धचैतन्यमात्र निज
आत्मद्रव्यने देखवुं ते ज छे––ए खास ध्यान राखवुं.
जिनागमना अभ्यासनुं फळ
अने
तेना निरंतर अभ्यासनो उपदेश
भोआत्मन्! आ जिनेन्द्र भगवानना वचन दिनरात निरंतर पढवा योग्य छे. जिनवचन सिवाय कोई
शरण नथी, माटे तेने सर्व प्रकारे हितरूप जाणी, ते जिनागमनी आराधना करीने मनुष्य–जन्मने सफळ करो!
जिनागमना अभ्यासथी जे गुण प्रगट थाय छे ते संक्षेपथी कहे छे–
(१) आत्महितनुं परिज्ञान जिनागमथी थाय छे. (अज्ञानीजनो ईन्द्रियजनित सुखने ज हितरूप जाणे
छे... अने सम्यग्ज्ञानी जन तो ते ईन्द्रयविषयोने तृष्णा