ज रहेलो छे, तेथी ते आत्मवर्ती छे. अहीं आत्माने ‘असर्वगतनय’ थी ‘आत्मवर्ती’ कह्यो तेनो अर्थ
‘अल्पज्ञता’ नथी; मीं चेली आंखनुं द्रष्टांत अल्पज्ञता बताववा माटे नथी आप्युं पण ‘आत्मवर्तीपणुं’
बताववा माटे आप्युं छे. आत्मा पोताना ज्ञान–सामर्थ्यथी सर्वने जाणतो होवा छतां पोते पोतामां ज लीन रहे
छे, सर्वमां व्यापी जतो नथी, –माटे ते सर्ववर्ती नथी पण आत्मवर्ती छे. समस्त ज्ञेयोने जाणी ले छे ते
अपेक्षाओ आत्माने सर्ववर्ती कह्यो, पण आत्मा परज्ञेयोमां वर्ततो नथी पण पोतामां ज वर्ते छे ते अपेक्षाए ते
आत्मवर्ती छे. ‘सर्ववर्ती कहीने आत्मानुं परिपूर्ण ज्ञानसामर्थ्य बताव्युं, ने आत्मवर्ती’ कहीने परथी भिन्नता
बतावी. अहो! समस्त पदार्थोने जाणवा छतां ज्ञान परज्ञेयोमां वर्ततुं नथी, ज्ञान तो आत्मवर्ती छे, आत्मामां
ज लीन रहीने ते सर्वने जाणी ले छे; माटे परज्ञेयोनी सन्मुख थईने तेने जाणवानी आकुळता छोड, ने तारा
अचिंत्य सामर्थ्य! अनंत धर्मवाळा चैतन्यपदनो महिमा वाणीथी पूरो पडे तेम नथी; ज्ञानमां परिपूर्ण आवे
पण वाणीथी तेनो महिमा पूरो पडे तेम नथी. माटे कह्युं छे के–
कही शक्या नहि ते पण श्री भगवान जो;
अनुभवगोचर मात्र रह्युं ते ज्ञान जो.’
फांफा मारे पण धर्म थाय तेम नथी.
आत्मानी पूर्ण ज्ञानशक्ति खीले तेथी कांई ते बहार फेलाई जा१य––एम नथी. ज्यां चैतन्यनुं दिव्य केवळज्ञान
झळहळी ऊठे त्यां भावथी अनंतता थाय छे पण क्षेत्रथी अनंतता थती नथी. असंख्यप्रदेशी क्षेत्रमां
अनंतसामर्थ्य भर्युं छे–एवो चैतन्यनो महिमा छे. केवळज्ञाननुं क्षेत्र पोताना आत्मा प्रमाणे ज छे, एटले
थाय छे. जेम मींचेली आंख पोते पोतामां ज रहेली छे तेम आत्मा परनी सन्मुख थया विना अने परमां गया
विना पोते पोतामां ज रहीने जाणे छे तेथी ते आत्मवर्ती छे, –आम असर्वगतनय जाणे छे.
जणवा छतां पोते ते अनंत पदार्थोपणे थई जतो नथी, पोते तो पोताना एकपणे रहीने ज जाणे छे.
ज्ञानमां आवा निमित्तनैमित्तिकसंबंधनी पूर्णता क्यारे थाय? –के निमित्तनी अपेक्षा छोडीने ज्ञानस्वभावमां
मिथ्याज्ञानमां निमित्त होय, पण ते मिथ्याज्ञान प्रमाणे सामी वस्तुनुं स्वरूप नथी तेथी मिथ्याज्ञानो विषय
जगतमां नथी.
ते ज वस्तुना लक्षे कोई जीव रागद्वेष करे तो तेना रागद्वेषमां निमित्त थाय एवो पण ते वस्तुनो धर्म छे.
कोई जीव ते वस्तुना लक्षे मिथ्याज्ञान करे तो त्यां सामी वस्तुने ‘मिथ्याज्ञाननुं निमित्त’ कहेवाय, पण
सम्यग्ज्ञाननो ज विषय छे.