Atmadharma magazine - Ank 108
(Year 9 - Vir Nirvana Samvat 2478, A.D. 1952)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 9 of 25

background image
: २३४ : आत्मधर्म: १०८
(२१) असर्वगतनये आत्मानुं वर्णन
‘सर्ववर्ती’ धर्मनी साथे आत्मामां एक ‘आत्मवर्ती’ धर्म पण छे; असर्वगतनयथी जोतां आत्मा
सर्ववर्ती नथी पण आत्मवर्ती छे. जेम मी चेली आंख पोतामां ज रहेली छे तेम असर्वगतनये आत्मा पोतामां
ज रहेलो छे, तेथी ते आत्मवर्ती छे. अहीं आत्माने ‘असर्वगतनय’ थी ‘आत्मवर्ती’ कह्यो तेनो अर्थ
‘अल्पज्ञता’ नथी; मीं चेली आंखनुं द्रष्टांत अल्पज्ञता बताववा माटे नथी आप्युं पण ‘आत्मवर्तीपणुं’
बताववा माटे आप्युं छे. आत्मा पोताना ज्ञान–सामर्थ्यथी सर्वने जाणतो होवा छतां पोते पोतामां ज लीन रहे
छे, सर्वमां व्यापी जतो नथी, –माटे ते सर्ववर्ती नथी पण आत्मवर्ती छे. समस्त ज्ञेयोने जाणी ले छे ते
अपेक्षाओ आत्माने सर्ववर्ती कह्यो, पण आत्मा परज्ञेयोमां वर्ततो नथी पण पोतामां ज वर्ते छे ते अपेक्षाए ते
आत्मवर्ती छे. ‘सर्ववर्ती कहीने आत्मानुं परिपूर्ण ज्ञानसामर्थ्य बताव्युं, ने आत्मवर्ती’ कहीने परथी भिन्नता
बतावी. अहो! समस्त पदार्थोने जाणवा छतां ज्ञान परज्ञेयोमां वर्ततुं नथी, ज्ञान तो आत्मवर्ती छे, आत्मामां
ज लीन रहीने ते सर्वने जाणी ले छे; माटे परज्ञेयोनी सन्मुख थईने तेने जाणवानी आकुळता छोड, ने तारा
ज्ञानने स्वभावसन्मुख एकाग्र कर तो तेमां लोकालोकना समस्त ज्ञेयो जणाई जशे. जुओ, आ चैतन्यपदनुं
अचिंत्य सामर्थ्य! अनंत धर्मवाळा चैतन्यपदनो महिमा वाणीथी पूरो पडे तेम नथी; ज्ञानमां परिपूर्ण आवे
पण वाणीथी तेनो महिमा पूरो पडे तेम नथी. माटे कह्युं छे के–
‘जे पद श्री सर्वज्ञे दीठुं ज्ञानमां
कही शक्या नहि ते पण श्री भगवान जो;
तेह स्वरूपने अन्य वाणी तो शुं कहे?
अनुभवगोचर मात्र रह्युं ते ज्ञान जो.’
––अहीं परिशिष्टनी शरूआतमां पण आचार्यदेवे कह्युं हतुं के श्रुतज्ञानपूर्वक स्वानुभवथी आत्मा प्रमेय
थाय छे. परिपूर्ण प्रत्यक्ष तो केवळज्ञानमां थाय छे. आवा आत्माना महिमाने जाण्या वगर बहारमां गमे तेटला
फांफा मारे पण धर्म थाय तेम नथी.
जेम आंख बधा पदार्थोने जाणती होवा छतां आंख तो आंखमां ज रहे छे, आंख कांई बहार नीकळीने
बीजा पदार्थोमां जती नथी, तेम आत्मानुं ज्ञान सर्व ज्ञेयोने जाणतुं होवा छतां ते पोताना स्वक्षेत्रमां ज रहे छे;
आत्मानी पूर्ण ज्ञानशक्ति खीले तेथी कांई ते बहार फेलाई जा१य––एम नथी. ज्यां चैतन्यनुं दिव्य केवळज्ञान
झळहळी ऊठे त्यां भावथी अनंतता थाय छे पण क्षेत्रथी अनंतता थती नथी. असंख्यप्रदेशी क्षेत्रमां
अनंतसामर्थ्य भर्युं छे–एवो चैतन्यनो महिमा छे. केवळज्ञाननुं क्षेत्र पोताना आत्मा प्रमाणे ज छे, एटले
केवळज्ञान प्रगट करवा माटे क्यांय बहारमां एकाग्र थवुं पडतुं नथी, पण आत्मामां ज एकाग्र थतां केवळज्ञान
थाय छे. जेम मींचेली आंख पोते पोतामां ज रहेली छे तेम आत्मा परनी सन्मुख थया विना अने परमां गया
विना पोते पोतामां ज रहीने जाणे छे तेथी ते आत्मवर्ती छे, –आम असर्वगतनय जाणे छे.
लोकालोकने जाणवा छतां आत्मद्रव्य पोतामां ज स्वसन्मुख रहे छे माटे ते पोतामां ज वर्ते छे; परने
जाणतां परमां व्यापे छे एम कहेवुं ते उपचार छे अने स्वमां ज व्यापे छे–ते परमार्थ छे. एक जीव अनंतने
जणवा छतां पोते ते अनंत पदार्थोपणे थई जतो नथी, पोते तो पोताना एकपणे रहीने ज जाणे छे.
जुओ, केवळज्ञाननुं परिपूर्ण सामर्थ्य खीली गयुं छे, तेमां बधा ज्ञेयो जणाय छे, तेथी तेने ‘सर्वगत’
कहीने तेमां बधा पदार्थोनुं निमित्तपणुं पण बताव्युं छे. केवळज्ञानमां जगतना बधा पदार्थो निमित्त छे. पण
ज्ञानमां आवा निमित्तनैमित्तिकसंबंधनी पूर्णता क्यारे थाय? –के निमित्तनी अपेक्षा छोडीने ज्ञानस्वभावमां
एकाग्र थाय त्यारे! केवळज्ञाननो विषय तो ‘बधुंय’ छे अने मिथ्याज्ञाननो कोई विषय जगतमां छे ज नहि.
मिथ्याज्ञानमां निमित्त होय, पण ते मिथ्याज्ञान प्रमाणे सामी वस्तुनुं स्वरूप नथी तेथी मिथ्याज्ञानो विषय
जगतमां नथी.
एक जीव सामी वस्तुने पोताना ज्ञानथी जाणे, त्यां ते वस्तुमां ज्ञाननुं निमित्त थवानो धर्म छे.
ते ज वस्तुना लक्षे कोई जीव रागद्वेष करे तो तेना रागद्वेषमां निमित्त थाय एवो पण ते वस्तुनो धर्म छे.
कोई जीव ते वस्तुना लक्षे मिथ्याज्ञान करे तो त्यां सामी वस्तुने ‘मिथ्याज्ञाननुं निमित्त’ कहेवाय, पण
तेना मिथ्याज्ञान प्रमाणे सामी वस्तुनुं स्वरूप नथी एटले ते ‘मिथ्याज्ञाननो विषय’ नथी. अहो! आखुं जगत
सम्यग्ज्ञाननो ज विषय छे.