Atmadharma magazine - Ank 108
(Year 9 - Vir Nirvana Samvat 2478, A.D. 1952)
(Devanagari transliteration).

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: २३६ : आत्मधर्म: १०८
वधारनारा, आकुळता उपजावनारा, पराधीनता सहित अल्पकाळ रहीने नाश थई जनारा तथा भयसहित अने
दुर्गतिमां लई जनारा जाणीने छोडे छे. कदाच चारित्रमोहना उदयने वश ते ईन्द्रियविषयोने भोगवे छे––एम
जगतने भले देखाय पण अंतरंगमां तो ते तेनाथी अत्यंत उदासीन वर्ते छे. आ रीते जिनागमथी ज
आत्महितनुं ज्ञान थाय छे.)
(२) जिनागमना अभ्यासथी मिथ्यात्व, अविरति, कषाय तथा योगनो अभाव थतां भावसंवर थाय छे.
(३) वळी जिनागमना अभ्यासथी धर्मने विषे तथा धर्मना फळने विषे निरंतर तीव्र अनुराग वधतां
नवीन नवीन संवेग–वैराग्य थाय छे.
(४) जिनागमना अभ्यासथी रत्नत्रयधर्ममां अत्यंत निष्कंपता थाय छे; केमके जिनागमथी दर्शन–
ज्ञानचारित्रने अचल निजरूप जाणशे ते ज धर्मनां निष्कपताने धारण करशे.
(प) वळी जिनागमथी तपोभावना थाय छे; जिनागमथी जे स्व–परनो भेद जाणशे ते ज कषायमळने
आत्माथी दूर करवा तपश्चरण करशे, तेथी जिनागमथी ज तपनी भावना थाय छे.
(६) वळी जिनेन्द्रना स्याद्वादरूप आगम जेणे सारी रीते जाण्या होय तेने ज प्रमाणनयथी चार
अनुयोगनुं यथातव् उपदेशकपणुं बने छे, तेथी जिनागमथी ज परोपदेशकपणुं थाय छे.
––आ रीते जिनागमना सेवनथी प्रगट थता गुणो कह्या.
१. आत्महितनुं ज्ञान
२. भावसंवर
३. नवीन संवेग ४. रत्नत्रयधर्ममां अत्यंत निष्कंपता
प. तपोभावना ६. यथावत् परोपदेशकपणुं
–आ छए गुणो जिनागमना अभ्यासथी प्रगटे छे.
(१) आत्महित जाणवाथी शुं थाय छे ते कहे छे:–
आत्मज्ञान वडे ज जीव–अजीव–आस्रव–बंध–संवर–निजरा–मोक्षरूप सर्व पदार्थोनुं सत्यस्वरूप जाणवामां
आवे छे तथा आ लोक तथा परलोक संबंधी हित–अहित पण ते ज्ञानथी ज जणाय छे.
आत्महितने नहि जाणनारो मूढ जीव मोहने पामे छे, मोहथी कर्मबंध थाय छे, अने कर्मबंधथी जीव
अनंत संसार–समुद्रमां परिभ्रमण करे छे.
आत्महितने जाणनारा जीवने हितमां प्रवृत्ति तथा अहितथी निवृत्ति थाय छे. माटे आत्महित शीखवा
योग्य छे.
(२) जिनागमना अभ्यासथी संवर थवानुं बतावे छे:–
स्वाध्याय करनार साधु पांच ईन्द्रियोना संवररूप थाय छे एटले स्पर्श–रस–गंध–रूप–शब्द ए पांच
प्रकारना ईन्द्रिय–विषयोथी ते रोकाई जाय छे, मन–वचन–कायानी त्रण गुप्तिरूप थाय छे, तथा मननी
एकाग्रतारूप थाय छे अने विनयथी सहित होय छे; माटे जिनागमनी स्वाध्यायथी ज ईन्द्रिय द्वारा–मन वचन
काया द्वारा तथा कषाय द्वारा आवता कर्मो अटकी जाय छे ने तेथी महान संवर थाय छे.
(३) स्वाध्यायथी नवीन नवीन संवेगनी उत्पत्ति थवानुं कहे छे–
जेम जेम श्रुतनुं अवगाहन करे छे–अभ्यास करे छे–अर्थचिंतन करे छे तेम तेम नवा नवा धर्मानुरागरूप
संवेगनी श्रद्धा वडे जीवने आनंदनी प्राप्ति थाय छे. केवुं छे श्रुत! पूर्वे अनंत काळमां जेनुं श्रवण कर्युं नथी, अने
कदाचित् कोई पर्यायमां तेनुं श्रवण कर्युं तोपण यथार्थ अर्थना श्रद्धान–अनुभवन–आस्वादनना अभावने लीधे
ते नहि श्रवण करवा तुल्य ज थयुं. वळी ते श्रुतमां अतिशयरूप रसनो फेलाव छे; केम के ज्ञान आत्मानुं निजरूप
छे अने तेमां सर्कल पदार्थ प्रतिबिंबित थाय छे. जेम जेम जीव तेनो अनुभव करे तेम तेम अज्ञानभावना
नाशपूर्वक अपूर्व आनंद उल्लसे छे. आवा श्रुतनो जेम जेम अभ्यास करे छे तेम तेम जीवने नवीन नवीन
धर्मानुराग जागे छे तथा संसार भोगोथी भयभीतता वधे छे, तेथी नवा नवा संवेगनुं (वैराग्यनुं) कारण पण
आ जिनेन्द्रना परमागमनुं सेवन ज छे.