आसो: २४७८ : २३७ :
(४) जिनेन्द्रना आगमना अभ्यासथी अने श्रद्धापूर्वक अनुभवथी धर्ममां निष्कंपताद्रढता–अचलता थाय
छे ते वात करे छे:
आगमनो जाणनार ज परमागमना अभ्यासथी रत्नत्रयनी वृद्धि तथा हानिने जाणे छे, अने रत्नत्रयनी
हानि–वृद्धिने जे जाणे ते ज हानिना कारणोने छोडीने अने वृद्धिना कारणोने अंगीकार करीने, विशुद्धताने प्राप्त
थयो थको दर्शनमां–ज्ञानमां–तपमां तथा संयममां स्थित थईने जीवनपर्यंत तेमां निश्चल प्रवर्ते छे.
(प) जिनागमथी तपोभावना
प्रवीण पुरुष एवा श्री गणधरदेवथी अवलोकन करवामां आवेला बाह्य–अभ्यंतर बार प्रकारना तपमां
स्वाध्याय समान तप कदी थयुं नथी, थशे नहि अने छे नहि.
जोके अनशनादि पण तप छे अने स्वाध्याय पण तप छे, तोपण स्वाध्यायना बळ विना सर्व तप
निर्जरानुं कारण नथी; ज्ञानसहित तप ज प्रशंसनीय छे. आत्मानी उज्जवळता–परम वीतरागता स्वाध्यायना
बळथी ज थाय छे, तथा आत्मा अने मोह–रागादि कर्मो––ए बनेनुं भिन्नपणुं ज्ञानमां ज अनुभवगोचर थाय
छे; अने ज्ञानमां जुदा देखे त्यारे ज जुदापणामां प्रवर्ते के आ तो रागादिक कर्मजनित भावो छे अने आ हुं
ज्ञान–दर्शनमय शुद्धआत्मा छुं, ते रागादिक आ प्रकारे दूर थशे–ए प्रमाणे समजीने अनशनादि तप करे तेने ज
कर्मनी निर्जरा थाय छे. माटे स्वाध्याय समान तप कदी थयुं नथी, थशे नहि अने छे नहि.
सम्यग्ज्ञानरहित अज्ञानी जीव जे कर्मोनो लाखो–करोडो भवसुधी तपश्चरण करीने खपावे छे ते कर्मोने
सम्यग्ज्ञानी जीव त्रण गुप्तिरूप थयो थको अंतर्मुहूर्तमां खपावे छे.
मिथ्याज्ञानी जे तप करे छे ते आ लोक–परलोकना भोगनी चाहनापूर्वक करे छे तेथी नवीन कर्मनुं बंधन
ज थाय छे; अने सम्यग्द्रष्टि भोजन करतो होय तोपण वांछाना अभावथी ते निर्जरा ज करे छे, राग–द्वेषना
अभावने लीधे तेने नवीन कर्मबंध थतो नथी. आ शुद्धता छे अने जे कर्मबंध करे छे ते अशुद्धता छे.
स्वाध्याय–भावना वडे, कर्मना आगमनना कारणरूप जे मन–वचन–कायानो वेपार तेनो अभाव थतां
त्रण प्रकारनी गुप्ति थाय छे; अने गुप्ति थवाथी मरण सुधी आराधना निर्विघ्न रहे छे. माटे स्वाध्याय ज
आराधनानुं प्रधान कारण छे. अहीं एटलुं विशेष छे के जे स्वाध्याय भावनामां रत होय ते ज पर जीवोने
उपदेश देनार होय, बीजे कोई परना उपकारमां समर्थ नथी.
(६) परने उपदेशदाता थवामां क्या गुणो प्रगट थाय छे ते कहे छे–
बीजा भव्य जनोने सत्यार्थ धर्मनो उपदेश देवाथी पोताने तेम ज अन्य श्रोताजनोने संसारथी
भयभीतता थाय छे, तथा परम धर्ममां प्रवर्ततथी संसारपरिभ्रमणनो अभाव थाय छे; माटे पोतानो तेम ज
परनो उद्धार जिनवचनना उपदेशथी ज थाय छे. वळी, पोताना आत्माने तथा अन्य जीवोने जिनेन्द्रना
आगमनो उपदेश करवाथी भगवान सर्वज्ञनी आज्ञानुं पालन थाय छे जिनेन्द्रना धर्ममां जेने अत्यंत प्रीति होय
ते ज, निर्वांछक अने अभिमानरहित थईने धर्मोपदेश करे छे, तेथी तेमां वात्सल्यगुण पण प्रगट थाय छे. वळी
जिनेन्द्रना धर्मनो उपदेश आपीने धर्मनो प्रभाव प्रगट करवामां जेने उत्साह होय तथा आत्मगुण वधारवानी
वांछा होय तेने ‘प्रभावना’ नामनो गुण होय ज छे. वळी स्याद्वादरूप परमागममां जेने अत्यंत प्रीति होय
तेने ज धर्मनुं उपदेशकपणुं होय, एटले तेमां भक्ति गुण पण प्रगट थाय छे. वळी परमागमना सत्यार्थ
उपदेशवडे धर्मतीर्थनी अविच्छिन्नता रहे छे, तेनी परंपरा तूटती नथी, सर्वे जनो धर्मनुं स्वरूप जाणता रहे छे
अने घणा काळ सुधी धर्मनो प्रवाह चाले छे; तेथी पोतानो तेम ज परनो उद्धार, भगवाननी आज्ञानुं पालन,
वात्सल्य, प्रभावना, भक्ति तथा धर्मतीर्थनी अविच्छिन्नता––ए गुणो धर्मोपदेशना दातापणाथी जाणीने
आगमनी आज्ञा प्रमाणे धर्मोपदेशमां प्रवर्तन करवुं ते ज परम कल्याण छे.
आ प्रमाणे जिनवयनोना अभ्यासथी थता गुणो कह्या; आ जाणीने जिनेन्द्रभगवानना वचन दिन–रात
निरंतर पढवा योग्य छे. जिनवचन सिवाय कोई शरण नथी, माटे तेने सर्वप्रकारे हितरूप जाणी तेनी आराधना
करीने मनुष्य जन्मने सफळ करो.
(जुओ: भगवती आराधना, शिक्षा अधिकार गाथा: १०१ थी ११३)