उपकारी श्री गुरुओए शुद्धनयना ग्रहणनुं फळ मोक्ष जाणीने एनो
त्रणलोकमां थतो नथी.
भूतार्थस्वभावना आश्रये ज कल्याण थाय छे, माटे भूतार्थस्वभावने देखाडनारो शुद्धनय ज आश्रय
आत्मवस्तुमां गुण–गुणीना भेद पाडीने कथन करवुं ते व्यवहार छे. ज्ञान अने ज्ञानीना भेदथी कहेनारो जे
व्यवहार तेनाथी पण परमार्थ मात्र ज कहेवामां आवे छे; आ रीते व्यवहारनय परमार्थनो प्रतिपादक छे, पण ते
व्यवहार पोते अनुसरवा योग्य नथी; परमार्थस्वभाव ज आश्रय करवा योग्य छे.
अटकी जाय ते तो व्यवहारमूढ अज्ञानी छे, तेने समजाववा आचार्यदेव कहे छे के हे भाई! व्यवहारनय पोते तो
अभूतार्थ छे, तेथी ते आश्रय करवा जेवो नथी. व्यवहारथी भेद पाडीने कथन कर्युं त्यां पण अमारो आशय तो
परमार्थने ज बताववानो हतो; माटे तुं व्यवहारनो आश्रय छोड ने अभेदरूप परमार्थ वस्तुने लक्षमां ले.
कांई रागने के परने नथी बतावतो; माटे तुं भेदनी सामे जोईने न अटकतां अभेदवस्तुने पकडी लेजे.
व्यवहारथी भेद पाडीने कथन कर्युं ते वखते कहेनारनो आशय अभेदनुं प्रतिपादन करवानो छे अने सामो
समजनार पण ते आशयने पकडीने परमार्थ समजी जाय छे, तेथी त्यां ‘व्यवहारे पण परमार्थनुं ज प्रतिपादन
कर्युं’ एम कहेवाय छे. जुओ, आमांथी तो एवुं तात्पर्य नीकळे छे के–कथन भले निश्चयथी हो के व्यवहारथी हो,
पण परमार्थस्वरूप समजीने तेनो ज आश्रय करवा योग्य छे, व्यवहारनय आश्रय करवा योग्य नथी; जे जीव
व्यवहारना आश्रये लाभ थवानुं माने तेने तो निश्चय के व्यवहारनुं कांई भान नथी, तेने आचार्यदेव
‘अनादिरूढ व्यवहारमां मूढ’ कहे छे.
तने परमार्थनुं लक्ष करवानुं कह्युं हतुं, तेने बदले जो तुं व्यवहारना आश्रये लाभ मानीने तेने ज वळगी रहे तो
तने कहीए छीए के ते व्यवहार तो अभूतार्थ छे, तेना अश्रये लाभ नथी, माटे तेनो आश्रय छोड, ने
शुद्धनयवडे परमार्थस्वभावनुं अवलंबन कर. जेओ शुद्धनयनो आश्रय करे छे तेओ ज सम्यग्द्रष्टि छे, जेओ
शुद्धनयनो आश्रय नथी करता ने व्यवहारनो आश्रय करे छे तेओ सम्यग्द्रष्टि नथी. धर्मी जीव शुद्धनयना
अवलंबनथी पोताने सहज एक ज्ञायकस्वभावपणे अनुभवे छे. आवा शुद्धनयनो आश्रय जीवे पूर्वे