Atmadharma magazine - Ank 108
(Year 9 - Vir Nirvana Samvat 2478, A.D. 1952)
(Devanagari transliteration).

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आसो: २४७८ : २३९ :
यह निचोर या ग्रंथको, यहै परम रस पोष।
तजै शुद्धनय बंध है, गहै शुद्धनय मोख।।

––शुद्धनयने छोडवाथी बंधन थाय छे ने शुद्धनयना ग्रहणथी मोक्ष थाय छे;––आवो आ शास्त्रनो निचोड
छे अने आ वात परम तत्त्वरसनी पोषक छे.
जुओ, आ मोक्षनो मार्ग! अज्ञानीओ ‘व्यवहार... व्यवहार’ करे छे ने व्यवहारना आश्रये मोक्ष थवानुं
मनावे छे; तेनी सामे अहीं वीतरागी संतोनो पोकार छे के शुद्धस्वभावना आश्रयथी ज मोक्ष थाय छे, ए
सिवाय बीजा कोईपण उपायथी मोक्ष त्रणकाळ त्रणलोकमां थतो नथी. अरे मूढ! तुं व्यवहारना आश्रयथी लाभ
थवानुं माने छे, पण व्यवहारनो आश्रय तो अनादिथी तुं करी ज रह्यो छे, छतां केम कल्याण न थयुं!! माटे
समज के व्यवहारना आश्रये कल्याण थतुं नथी. भूतार्थ स्वभावना आश्रये ज कल्याण थाय छे, पण तेनो
आश्रय तो तें कदी कर्यो नथी.
शुद्धनयना आश्रय सिवाय व्यवहारना आश्रयथी लाभ थवानुं जे मनावता होय, –मिथ्याद्रष्टिना दान–
दयाना शुभपरिणामथी परीतसंसार थवानुं मनावता होय, ते उपदेशक मिथ्याद्रष्टि छे तथा तेने माननारा
जीवो पण मिथ्याद्रष्टि छे. शुद्धस्वभावना आश्रय विना भवकट्टी थाय ज नहि. जे शास्त्रमां मिथ्याद्रष्टिने पण
दया–दानना भावथी परीतसंसार थवानुं कह्युं होय तेमां ‘शुद्धस्वभावना’ आश्रयथी लाभ थाय’ एवी वात
यथार्थ होय ज नहि. रागना आश्रयथी पण लाभ माने अने शुद्ध आत्माना आश्रयथी पण लाभ माने––ए
बे वातनो मेळ खाय नहि, केम के ए बंने वात परस्पर विरुद्ध छे; जे शुद्धआत्माना आश्रयथी लाभ थवानुं
माने ते रागथी लाभ थवानुं माने ज नहि अने जे रागथी लाभ थवानुं माने ते ‘शुद्धआत्माना आश्रयथी
लाभ थाय’ एम यथार्थपणे मानी शके नहि. मिथ्याद्रष्टिने दयादानना रागथी भवकट्टी थवानुं जेमां कह्युं होय
तेवा शास्त्रने जे जीव शास्त्र तरीके मानतो होय, तथा तेवुं कहेनाराने गुरु तरीके मानतो होय, –ते जीव
शुद्धात्माना आश्रये लाभ थवानी वात करतो होय तो ते वात तेना घरनी नथी पण क्यांकथी चोरी लीधेली
छे. मिथ्याद्रष्टिना रागथी भवनो नाश थवानुं जे कहे तेना घरे ‘शुद्धात्माना आश्रयथी लाभ थाय’ ए वातनी
गंध पण शेनी होय?
अज्ञानी जीवो परमार्थरूप अभेदस्वभावने जाणता नथी तेथी तेने अभेद समजाववा माटे, व्यवहारथी
भेद पाडीने कथन करवामां आवे छे; पण त्यां भेदनी प्रधानता नथी, पण अभेद बताववानुं प्रयोजन छे.
परमार्थस्वभाव समजावतां, समजावनार आचार्यने तथा समजनार शिष्यने वच्चे गुणगुणी भेदना विकल्परूप
व्यवहार आव्या विना रहेतो नथी, पण त्यां तेमनो आशय तो परमार्थस्वभाव कहेवानो अने समजवानो छे.
वाणीमां भेद आवतो होवा छतां श्री आचार्यदेवनो आशय अभेद ज कहेवानो छे, अने शिष्यने भेदनो विकल्प
होवा छतां तेनुं वलण पण अभेदने पकडवा तरफ छे, अने ते भेदनुं लक्ष छोडीने अभेदस्वभावने लक्षमां लई
ल्ये छे, तेथी तेने तो व्यवहारनये पण परमार्थ ज बताव्यो; आ रीते व्यवहार परमार्थनो ज प्रतिपादक छे.
अभेदस्वभावना आश्रये अनुभव करतां भेदनो विकल्प तूटी जाय छे, माटे भेदरूप व्यवहारनय