Atmadharma magazine - Ank 108
(Year 9 - Vir Nirvana Samvat 2478, A.D. 1952)
(Devanagari transliteration).

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: २४० : आत्मधर्म: १०८
अभूतार्थ छे, ते आश्रय करवा जेवो नथी.
व्यवहारनयने परमार्थनो प्रतिपादक कह्यो त्यां कोई जीव परमार्थने तो लक्षमां न ल्ये अने एकला
व्यवहारने ज पकडीने रोकाई जाय, तो तेने व्यवहारनो आश्रय छोडावीने भूतार्थ स्वभावनी द्रष्टि करवानुं
आचार्यदेव अगियारमी गाथामां समजावे छे. अरे भाई! अमे व्यवहारने परमार्थनो ज प्रतिपादक कह्यो ते तो
तने व्यवहारनुं लक्ष छोडावीने परमार्थना लक्षमां पहोंचाडवा माटे कह्युं हतुं, पण ते व्यवहारनो ज आश्रय
करीने जो तुं रोकाईश तो तने परमार्थस्वरूप आत्मा नहि समजाय; केम के व्यवहारनय तो अभूतार्थ छे तेना
आश्रये शुद्धआत्मानुं ज्ञान थतुं नथी, माटे ते आश्रय करवा योग्य नथी. भूतार्थस्वभावने देखाडनारो शुद्धनय
ज आश्रय करवा योग्य छे. ––आवो श्रीगुरुओनो उपदेश छे.
जेम आंगळी चंद्रने देखाडनार छे, पण आंगळी पोते चंद्र नथी; तेम व्यवहार परमार्थनो देखाडनार छे
पण ते पोते परमार्थ नथी, माटे अंगीकार तो परमार्थने ज करजे, व्यवहारने अंगीकार करीश नहि. जेम
आंगळी सामे जोया करे तो चंद्र देखाय नहि, पण जो आंगळीनुं लक्ष छोडीने सीधुं चंद्र उपर लक्ष करे तो
आंगळीए चंद्रने देखाड्यो–एम कहेवाय छे; तेम अभेद आत्मस्वरूप समजाववा माटे व्यवहारथी भेद पाडीने
कह्युं होय, त्यां ते भेदनी सामे ज जोया करे तो आत्मानुं परमार्थ स्वरूप समजाय नहि, पण ते भेदरूप
व्यवहारनुं लक्ष छोडीने जो सीधो अभेदस्वभावने लक्षमां लई ल्ये तो त्यां व्यवहारने परमार्थनो प्रतिपादक
कहेवामां आवे छे. पण जे जीव व्यवहारना ज आश्रयमां रोकाई जाय ने व्यवहारनुं लक्ष छोडीने परमार्थने
लक्षमां न ल्ये तो तेने माटे व्यवहार परमार्थनो प्रतिपादक छे’ –ए वात लागु पडती नथी.
जुओ, शास्त्रोमां स्त्रीना शरीरनुं माथाथी पग सुधीनुं वर्णन कर्युं होय, पण त्यां संतोनो आशय तो
वैराग्य कराववानो छे तेथी ते विकथा नथी पण वीतरागीकथा छे. ते वर्णन सांभळतां जोकोई अशुभराग करे तो
तेने माटे ते विकथा छे, अने जो वैराग्यपरिणाम करे तो ते वीतरागीकथा छे. ––ए रीते विकथा के वीतरागीकथा
जीवना भावअनुसार कहेवाय छे; तेम व्यवहारे भेद पाडीने समजावतां जे जीवे परमार्थने लक्षमां लई लीधो छे
ते जीवने माटे ‘व्यवहारे पण परमार्थनुं ज प्रतिपादन कर्युं’ एम कहेवामां आवे छे.
ए ज प्रमाणे बीजुं द्रष्टांत सप्तभंगीनुं ल्यो, छद्मस्थनी वाणीमां एक साथे सात भंगनुं कथन आवतुं
नथी; पण जे वाक्य द्वारा, समजनार प्रमाणसप्तभंगीने समजी जाय त्यां ते वाक्यने प्रमाणसप्तभंगीनुं वाक्य
कहेवाय; अने समजनार नयसप्तभंगीने समजे तो ते ज वाक्यने नयप्ररूपणा कहेवाय. सप्तभंगीनुं पूरुं कथन
तो एक वाक्यमां आवतुं नथी पण समजनार ते प्रकारनो आशय समजी जाय छे तेथी त्यां वाणीए पण तेनुं
प्रतिपादन कर्युं––एम कहेवामां आवे छे; ए रीते आत्मानुं परमार्थस्वरूप समजाववा कोई पण वचन बोलतां
तेमां भेदरूप व्यवहार आव्या विना रहेतो नथी; आ अपेक्षाए परमार्थस्वभावने कथंचित् वचनअगोचर
कहेवाय छे, पण सामो समजनार जीव कहेनारना आशयने पकडीने अभेदस्वभावने समजी जाय छे तेथी त्यां ते
वाणीए पण परमार्थनुं प्रतिपादन कर्युं एम कहेवाय छे; सामो जीव आशय समजी जाय छे ते अपेक्षाए परमार्थ
कथंचित् वक्तव्य पण छे.
कोई पण प्रकारना व्यवहारना आश्रये परमार्थ आत्मानो अनुभव थतो नथी माटे सघळोय व्यवहारनय
अभूतार्थ छे. अहीं व्यवहारनयने ‘सघळोय’ एवुं विशेषण आप्युं छे एटले तेनाथी विरुद्ध एवो परमार्थ–निश्चय
‘एक ज प्रकारनो’ छे––ए वात तेमां आवी जाय छे, अने ते एकरूप निश्चयस्वभाव ज भूतार्थ होवाथी तेना
आश्रये सम्यग्दर्शन थाय छे. माटे संतोए जीवोना कल्याण अर्थे फरी फरीने एना ज आश्रयने उपदेश आप्यो छे.
शास्त्रमां एम कथन आवे के ‘शुद्धनयनो आश्रय करवो;’ –हवे शुद्धनय तो एक पर्याय छे, तो शुं
पर्यायनो आश्रय करवानुं कह्युं छे? ना; पर्यायनो आश्रय करवानुं नथी कह्युं, पण शुद्धनयना विषयभूत जे
अखंडद्रव्य छे तेनो आश्रय करवानुं कह्युं छे; शुद्धनयनो आश्रय करवानुं कह्युं छे; शुद्धनयनो आश्रय करवानुं कह्युं
ते कथन तो नय अने नयना विषयने अभेद करीने कह्युं छे. शुद्धनय क्यारे थाय? के ज्यारे अखंड द्रव्यनी सामे
जुए त्यारे, तेथी शुद्धनयनो आश्रय करवानुं कहेतां पण अखंड द्रव्यनी सन्मुख जोवानुं ज आव्युं.
अध्यात्ममां घणीवार नय अने नयना विषयने अभेदपणे वर्णववामां आवे छे. अहीं ११ मी गाथामां
व्यवहारनयने