छे, परंतु अहीं ते पर्याय द्रव्यमां अभेद थई होवाथी आखाने (द्रव्य–पर्यायनी अभेदता थई तेने) भूतार्थ कही
दीधुं छे. अनुभव वखते शुद्धनयनी पर्याय जुदी नथी रहेती पण द्रव्यमां अभेद थई जाय छे; जो भूतार्थस्वभावमां
अभेद न थाय तो ते शुद्धनय ज नथी. शुद्धनय पोते श्रुतज्ञाननी पर्याय होवा छतां तेनो विषय भूतार्थरूप
विषय अने ज्ञान तेने जाणनार–एवा बे भेदनुं लक्ष शुद्धनयनी अनुभूति वखते होतुं नथी.
अनुभूति छे ते निश्चयथी समस्त जिनशासननीअनुभूति छे. अहो! त्यां तो आचार्यदेवे अलौकिक वात
करी छे, आखाय जैनशासननुं रहस्य बतावी दीधुं छे.
घट–पटादि प्रकाशे छे, तेम आत्मानी स्वच्छत्वशक्तिथी तेना उपयोगमां लोकालोकना आकारो प्रकाशे छे.
धोवाथी आत्मानी स्वच्छता थाय–एम नथी; स्वच्छता तो आत्मानो ज गुण छे, ते क्यांय बहारथी आवती
नथी. अज्ञानीओ चैतन्यना स्वच्छ स्वभावने भूलीने शरीरनी स्वच्छतामां धर्म माने छे, ने शरीरनी अशुचि
थतां जाणे के पोताना आत्मामां मलिनता लागी गई एम ते माने छे; पण आत्मा तो स्वयं स्वच्छ छे, तेना
उपयोगमां लोकालोक जणाय छतां तेने मलिनता न लागे एवो तेनो स्वच्छस्वभाव त्रिकाळ छे.
छे, तेनामां कोईने जाणवानी ताकात नथी, रागादि भावोमां पण एवी स्वच्छता नथी के ते कोईने जाणी शके, ते
तो आंधळा छे; आत्मामां ज एवी स्वच्छता छे के तेना उपयोगमां बधुं य जणाय छे. स्वच्छताने लीधे
आत्मानो उपयोग ज लोकालोकना ज्ञानपणे परिणमी जाय छे. शरीर स्वच्छ होय तो आत्माना भाव निर्मळ
थाय–एम नथी.