केवळज्ञाननुं अचिंत्य सामर्थ्य जेणे पोतानी प्रतीतमां लीधुं तेने पोताना ज्ञानस्वभाव तरफनो अपूर्व पुरुषार्थ
आवी जाय छे. भगवानने केवळज्ञान प्रगट्युं ते क्यांथी प्रगट्युं? –के ज्ञानस्वभावमांथी; एटले केवळज्ञाननो
निर्णय करतां ज्ञानस्वभावनी सन्मुख द्रष्टि थई जाय छे अने मोक्षमार्गनो पुरुषार्थ शरू थई जाय छे. केवळी
पर्यायमां सर्वगतशक्तिनो निर्णय कर्यो तेणे द्रव्यसन्मुख एकाग्रतावडे ज ते निर्णय कर्यो छे, एटले ते पोते
स्वभाव तरफना पुरुषार्थथी मोक्षमार्गमां आवी ज गयो छे अने केवळीप्रभुना सर्वगतज्ञानमां पण एम ज
भास्युं छे; ते जीवने हवे अल्पकाळमां मोक्षदशा थई जशे. जुओ, आ आत्माना सर्वगतधर्मनी प्रतीतनुं फळ!
एक धर्मने जुदो पाडीने प्रतीतमां लेवानी आ वात नथी, पण एक धर्मनो यथार्थ निर्णय करवा जतां द्रष्टि
अखंड द्रव्यमां घूसी जाय छे. आत्माना सर्वगतधर्मनी प्रतीत कोई परनी सामे जोईने नथी थती; पण
सर्वगतधर्म आत्मानो छे तेथी आत्मा सामे जोईने तेनी प्रतीत थाय छे. सर्वगतधर्मनी प्रतीत करनारने पर
प्रतीत न रही, रागादिनो आश्रय न रह्यो, अने क्षणिक पर्याय उपर के एकेक धर्मना भेद उपर पण द्रष्टि न रही,
पण अनंतधर्मने धरनार एवा अभेद द्रव्य उपर द्रष्टि गई. अभेद द्रव्यनी द्रष्टि वगर तेना एकेक धर्मनुं पण
साचुं ज्ञान थतुं नथी. आ रीते सर्वगतधर्मने कबूलनार जीवनी द्रष्टिमां कोईपण परनो, विकारनो, अल्पज्ञतानो
के भेदनो आश्रय न रह्यो पण अखंड परिपूर्ण शुद्ध स्वद्रव्यनो ज आश्रय रह्यो; स्वभावना आश्रये तेने
अल्पकाळमां सर्वज्ञदशा थया विना रहे नहीं.
सुख भर्युं छे–तेनो महिमा जाणीने जो तेनो अनुभव करे तो विकारी भावोनुं
द्वेषने ज भोगवे छे पण राग–द्वेषरहित त्रिकाळी स्वभाव आनंदथी परिपूर्ण छे
तेने ते किंचित् पण भोगवतो नथी.
हजी संपूर्ण वीतरागता प्रगटी नथी त्यां सुधी पुरुषार्थनी हीनताने लीधे अल्प
राग–द्वेष थई जाय छे, पण तेने तेनुं स्वामीत्व नथी. अंतरमां चिदानंदी
गयुं छे. धर्मीने विकाररहित केवळ शुद्ध स्वभावनो ज प्रेम–आदर–उत्साह छे, तेथी
तेनाथी विरुद्ध एवा कोई पण भावोनो ते स्वामी थतो नथी.