Atmadharma magazine - Ank 108
(Year 9 - Vir Nirvana Samvat 2478, A.D. 1952)
(Devanagari transliteration).

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: २३२: आत्मधर्म: १०८
परंतु तेथी पुरुषार्थ ऊडी जतो नथी पण तेमां ज यथार्थ पुरुषार्थ आवी जाय छे. अहो! सर्वज्ञ भगवानना
केवळज्ञाननुं अचिंत्य सामर्थ्य जेणे पोतानी प्रतीतमां लीधुं तेने पोताना ज्ञानस्वभाव तरफनो अपूर्व पुरुषार्थ
आवी जाय छे. भगवानने केवळज्ञान प्रगट्युं ते क्यांथी प्रगट्युं? –के ज्ञानस्वभावमांथी; एटले केवळज्ञाननो
निर्णय करतां ज्ञानस्वभावनी सन्मुख द्रष्टि थई जाय छे अने मोक्षमार्गनो पुरुषार्थ शरू थई जाय छे. केवळी
भगवाने पोताना ज्ञानमां बधुं जोयुं तेमां पुरुषार्थने पण जोयो छे.
केवळी भगवानने जे केवळज्ञान प्रगट्युं ते आत्मानी शक्तिमांथी ज प्रगट्युं छे, कांई बहारथी के
रागमांथी नथी आव्युं. अहो! मारा आत्मामां सर्वगतपणुं प्रगट थाय एवुं सामर्थ्य छे–आम जेणे पोतानी
पर्यायमां सर्वगतशक्तिनो निर्णय कर्यो तेणे द्रव्यसन्मुख एकाग्रतावडे ज ते निर्णय कर्यो छे, एटले ते पोते
स्वभाव तरफना पुरुषार्थथी मोक्षमार्गमां आवी ज गयो छे अने केवळीप्रभुना सर्वगतज्ञानमां पण एम ज
भास्युं छे; ते जीवने हवे अल्पकाळमां मोक्षदशा थई जशे. जुओ, आ आत्माना सर्वगतधर्मनी प्रतीतनुं फळ!
एक धर्मने जुदो पाडीने प्रतीतमां लेवानी आ वात नथी, पण एक धर्मनो यथार्थ निर्णय करवा जतां द्रष्टि
अखंड द्रव्यमां घूसी जाय छे. आत्माना सर्वगतधर्मनी प्रतीत कोई परनी सामे जोईने नथी थती; पण
सर्वगतधर्म आत्मानो छे तेथी आत्मा सामे जोईने तेनी प्रतीत थाय छे. सर्वगतधर्मनी प्रतीत करनारने पर
सामे जोवानुं तो न रह्युं ने पोतामां पण राग–द्वेष के अल्पज्ञता उपर द्रष्टि न रही; ‘अल्पज्ञता जेटलो हुं’ एवी
प्रतीत न रही, रागादिनो आश्रय न रह्यो, अने क्षणिक पर्याय उपर के एकेक धर्मना भेद उपर पण द्रष्टि न रही,
पण अनंतधर्मने धरनार एवा अभेद द्रव्य उपर द्रष्टि गई. अभेद द्रव्यनी द्रष्टि वगर तेना एकेक धर्मनुं पण
साचुं ज्ञान थतुं नथी. आ रीते सर्वगतधर्मने कबूलनार जीवनी द्रष्टिमां कोईपण परनो, विकारनो, अल्पज्ञतानो
के भेदनो आश्रय न रह्यो पण अखंड परिपूर्ण शुद्ध स्वद्रव्यनो ज आश्रय रह्यो; स्वभावना आश्रये तेने
अल्पकाळमां सर्वज्ञदशा थया विना रहे नहीं.
सिद्ध भगवाना आनंदनो नमूनो
जेणे आत्माना परम आनंदस्वरूपनुं माहात्म्य जाण्युं नथी ते ज जीव
पुण्य–पापना विकारी भावोने पोतानुं स्वरूप मानीने भोगवे छे; आत्मामां परम
सुख भर्युं छे–तेनो महिमा जाणीने जो तेनो अनुभव करे तो विकारी भावोनुं
स्वामीपणुं छूटी जाय छे.
अज्ञानीने शुभ–अशुभभावनुं ज धणीपणुं छे, एटले ‘राग–द्वेष ते ज हुं
छुं’ एम तेना अभिप्रायमां राग–द्वेषनुं धणीपणुं त्रिकाळ ऊभुं छे, तेथी ते राग–
द्वेषने ज भोगवे छे पण राग–द्वेषरहित त्रिकाळी स्वभाव आनंदथी परिपूर्ण छे
तेने ते किंचित् पण भोगवतो नथी.
ज्ञानी–धर्मात्माने पोताना आनंदस्वभावनुं भान छे अने अंशे भोगवटो
पण छे, सिद्ध भगवानना आनंदना स्वादनो नमूनो तेणे चाखी लीधो छे, पण
हजी संपूर्ण वीतरागता प्रगटी नथी त्यां सुधी पुरुषार्थनी हीनताने लीधे अल्प
राग–द्वेष थई जाय छे, पण तेने तेनुं स्वामीत्व नथी. अंतरमां चिदानंदी
आत्मस्वभावनी रुचि अने महिमा होवाथी आखा संसारनुं माहात्म्य तेने ऊडी
गयुं छे. धर्मीने विकाररहित केवळ शुद्ध स्वभावनो ज प्रेम–आदर–उत्साह छे, तेथी
तेनाथी विरुद्ध एवा कोई पण भावोनो ते स्वामी थतो नथी.
–प्रवचनमांथी