Atmadharma magazine - Ank 108
(Year 9 - Vir Nirvana Samvat 2478, A.D. 1952)
(Devanagari transliteration).

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आसो: २४७८ : २३३:
‘अहो, सर्व पदार्थोने जाणी लउं एवुं मारा ज्ञाननुं सामर्थ्य छे तेथी मारो आत्मा सर्वगत छे’ –आम
साधक धर्मात्माने पोताना सम्यग्ज्ञानमां आत्मानो स्वभाव जणाय छे, अने तेने ज ‘सर्वगतनय’ होय छे.
अभव्यने त्रणकाळमां कदी पण सर्वगतपणुं व्यक्त थाय–एवो तेनो स्वभाव ज नथी तेम ज तेने आवो
सर्वगतधर्म प्रतीतमां पण आवतो नथी, अने जेने आवो धर्म प्रतीतमां आवे तेने सर्वगतपणुं (–केवळज्ञान)
प्रगट्या वगर रहेतुं नथी. अभव्य जीवने केवळज्ञानावरणीय कर्म छे एटले तेने सर्वगतपणुं (–केवळज्ञान)
प्रगट्या वगर रहेतुं नथी. अभव्य जीवने केवळज्ञानावरणीय कर्म छे एटले तेने पण केवळज्ञाननी शक्ति तो छे
पण ते केवळज्ञान प्रगटीने सर्वंगतपणुं थाय एवो धर्म तेनामां नथी. धर्मी जीवने सर्वज्ञदशा प्रगट्या पहेलांं
पण भावश्रुतज्ञानमां पोताना सर्वगत धर्मनो निर्णय थई जाय छे, अने अल्पकाळमां सर्वगतपणुं प्रगटे एवो
धर्म तेनामां होय छे.
‘सर्व जीव छे सिद्धसम’ ––निश्चयथी सर्वे जीवो सिद्ध जेवा छे–ए कथनमां तो अभव्य जीव पण आवी
जाय छे, परंतु अत्यारे जे सर्वगतधर्म कहेवाय छे एवुं सर्वगतपणुं प्रगटवानो धर्म तेनामां नथी; पण अहीं
परनी वात नथी लेवी, अहीं तो पोताना आत्माने जाणवानी वात छे. जे जीव सर्वंगतधर्मनी प्रतीत करे तेने
पोतामां सर्वगतपणुं प्रगटवानो धर्म न होय एम बने नहीं. जेणे पोताना सर्वगतस्वभावनी प्रतीत करी तेने
पर्याय क्षणेक्षणे निर्मळ थती जाय छे ने अल्पकाळमां सर्वज्ञता प्रगटी जाय छे. जेणे आत्माना सर्वगतधर्मनी
प्रतीत करी तेने, पर्यायमां अल्पज्ञता अने विकार होवा छतां, ‘हुं सदा अल्पज्ञतापणे के रागपणे रहीश’ –एवी
शंका रहेती नथी, पण ते तो निःशंक छे के मारा स्वभावना आश्रये राग अने अल्पज्ञताने तोडीने अल्पकाळमां
हुं सर्वज्ञ थईश. नानामां नाना धर्मात्माने पण आवी निःशंकता थया विना रहे नहि; अने जो आवी निःशंकता
न थाय तो तेणे सर्वगतधर्मने जाण्यो ज नथी.
‘आत्मा तो सदा अल्पज्ञ ज रहे, आत्माने कदी त्रणकाळ त्रणलोकनुं परिपूर्ण ज्ञान थाय ज नहीं’ –एम
जे माने तेणे तो आत्माने अभव्य जेवो मान्यो छे; जो अभव्यनी मुक्ति थाय तो एवी मान्यतावाळानी मुक्ति
थाय! अभव्य जीवोने त्रणलोकमां सर्वज्ञता प्रगटती नथी. जो कोई एम माने के ‘आत्मा कदी सर्वज्ञ थाय ज
नहि, आत्मा सदा अल्पज्ञ ज रहे’ ––तो तेणे अभव्य करतां पोताना आत्मानी कांई विशेषता न मानी. अहीं
एवा जीवोनी वात नथी. अहीं तो जेने पोताना सर्वगतस्वभावनी प्रतीत थई जाय छे अने अल्पकाळमां ज
सर्वज्ञदशा प्रगटवानी निःशंकता थई जाय छे एवा साधक जीवनी वात छे. ज्यां पोताना सर्वगतधर्मने मान्यो
त्यां पूर्णस्वभावनी प्रतीत थई, अने अल्पज्ञतानो, विकारनो के निमित्तनो आदरभाव द्रष्टिमांथी छूटी गयो,
एटले तेमां ज सम्यक्त्वनो महान पुरुषार्थ आवी गयो. जेने आत्माना सर्वंगतस्वभावनी प्रतीत थई होय ते
एम न माने के ‘सम्यग्दर्शनमां आत्मानो पुरुषार्थ नथी’ चारित्रमां आत्मानो पुरुषार्थ छे पण सम्यक्त्वमां
आत्मानो पुरुषार्थ नथी–ए मान्यता तो महा विपरीत छे; पहेलांं सम्यक्त्व वगर चारित्रदशा के मुनिपणुं
होवानुं जे माने तेने तो धर्मना एकडानी पण खबर नथी. धर्मनुं मूळ सम्यग्दर्शन छे, सम्यग्दर्शन वगर कोई
जातनो धर्म होतो नथी; पण अरेरे! मूढ जीवोने सम्यग्दर्शनना महिमानी खबर नथी, अने सम्यग्दर्शन वगर
धर्म मानी रह्या छे.
अहीं आत्माने ‘सर्वगत’ कह्यो तेथी एवो भ्रम न करवो के एक आत्मा सर्व पदार्थोमां व्यापक हशे!
अहीं तो सर्वने जाणवाना सामर्थ्यनी अपेक्षाए आत्मामां सर्वगतपणुं कह्युं छे, पण आत्मानुं ज्ञान कांई परमां
जतुं नथी. जेम चपळ माणसनी आंख चारे कोर फरी वळे छे–एम कहेवाय छे पण आंख कांई पोतामांथी बहार
नीकळीने परमां जती नथी, तेम आत्मानुं ज्ञान परने जाणती वखते आत्मामांथी नीकळीने कांई परमां चाल्युं
जतुं नथी, पण सर्वने जाणवानुं तेनुं सामर्थ्य छे ते अपेक्षाए तेने ‘सर्वगत’ कहेवाय छे. आवुं सर्वगतपणुं ते
आत्मानो एक धर्म छे.
सर्वगतधर्म आत्मानो पोतानो छे एटले त्रणकाळ त्रणलोकने जाणवानुं सामर्थ्य पोतामांथी ज प्रगटे छे;
शरीरना संहननने लीधे के कर्म खस्युं तेने लीधे आत्मामां सर्वगतपणुं प्रगट्युं नथी. आत्माना ज्ञानसामर्थ्यनो
परिपूर्ण विकास थई जतां ते सर्वने जाणे छे माटे सर्वगत छे, पण क्षेत्रथी कांई आत्मा सर्वगत नथी; क्षेत्रथी तो
असंख्यप्रदेशी ज छे पण सामर्थ्यथी अनंत छे. अहो!