छे; आखा जगतमां तेनी आण वर्ते छे. त्रणलोकना नाथ एवा चैतन्य बादशाहनो हुकम जगतमां सर्वत्र चाले
छे, ते ज्ञाननी आज्ञा बहार जगतमां कांई पण थतुं नथी. जुओ, अज्ञानीओ ईश्वरने जगतना कर्ता कहे छे
एवी आ वात नथी, पण ज्ञानसामर्थ्यमां त्रणकाळ त्रणलोक जणाई गया छे अने ते ज प्रमाणे जगतमां बनी
रह्युं छे, सर्वज्ञज्ञानमां जे जणायुं तेमां कदी कांई फेरफार थतो नथी––आ अपेक्षाए ज्ञाननी आण आखा
जगतमां वर्ते छे, ––एम कह्युं छे. जे जीव सर्वगतस्वभावने जाणे तेने सर्वज्ञता प्रगट्या वगर रहे नहि. साधक
जीव स्वसन्मुख थईने पोतानी आवी भक्तिनी प्रतीत करे छे अने तेने अल्पकाळमां ते शक्ति ऊघडी जाय छे.
जे जीव आवी शक्तिनी प्रतीत नथी करतो तेनी अहीं वात नथी. अहीं तो जे जीव समजवा माटे तैयार थईने
झंखनाथी पूछे तेने आचार्यदेव समजावे छे; एटले उपादान–निमित्तनी संधि सहितनुं आ वर्णन छे.
पोतानी छे; ए ज प्रमाणे पुण्य–पाप के अल्पज्ञपर्यायनी सामे पण जोवानुं रहेतुं नथी केम के तेना आधारे
सर्वगतशक्ति पोतानी छे; ए ज प्रमाणे पुण्य–पाप के अल्पज्ञपर्यायनी सामे पण जोवानुं रहेतुं नथी केम के तेना
आधारे सर्वंगतशक्ति रहेली नथी. सर्वगतशक्ति तो द्रव्यना आधारे रहेली छे एटले सर्वगतशक्ति कबूलनारे
द्रव्यनी सामे जोवानुं ज रहे छे. जेनी द्रष्टिमां निमित्तोनी के पुण्यनी रुचि छे तेने पोताना सर्वगतस्वभावनी
प्रतीत थती नथी; अने पोतानी सर्वगत शक्तिने जाणनारो जीव पुण्यनी के निमित्तोना आश्रयनी रुचि करतो
नथी. जुओ, एक सर्वगतशक्ति कबूलवामां केटली जवाबदारी आवे छे? सर्वगतधर्मनी प्रतीत करनारने
निमित्तना, पुण्यना के पर्यायना आश्रयनी द्रष्टि छूटीने, अंतरमां चिदानंद अखंड द्रव्य सन्मुख द्रष्टि होवी
जोईए. अखंड द्रव्यनी द्रष्टि कर्या वगर धर्ममां एक डगलुं पण आगळ चलाय तेम नथी.
ज्ञान थाय, अने साचुं ज्ञान थाय तो ज तेना फळरूप साचुं सुख तथा शांति छे. आत्मानुं जेवुं स्वरूप छे तेवुं
ज्ञानमां जाणे तो तेनो महिमा आवे अने ज्ञान आत्मा सन्मुख थाय, एटले आत्मा अने ज्ञाननी एकता थतां
वच्चेनो राग तूटी जाय तेनुं नाम सम्यग्ज्ञान अने वीतरागता छे, ते ज सुखनो उपाय छे, ते ज मोक्षमार्ग छे,
ते ज धर्म छे. आत्मानो असली स्वभाव जाणतां, ज्ञान अने रागनी एकत्वबुद्धि टळे ने ज्ञान अने स्वज्ञेयनी
(आत्मस्वभावनी) एकत्वबुद्धि थाय एनुं नाम भेदविज्ञान अथवा सम्यग्ज्ञान छे.
अल्पज्ञताना आधारे पोतानुं केवळज्ञान थवानुं माने नहि. सर्वगतशक्तिवाळो आत्मा छे तेमांथी ज सर्वज्ञपणुं
ऊघडे छे, तेनी प्रतीत करीने तेमां एकाग्र थतां सर्वगतज्ञान प्रगटी जाय छे. आ सर्वगतधर्मनी मुख्यताथी
आत्माने जाणवो ते सर्वगतनय छे; अभव्यने आवो सर्वगतनय कदी होतो नथी. सर्वगतनयथी छे; अभव्यने
आवो सर्वगतनय कदी होतो नथी. सर्वगतनयथी सर्वगतधर्मवाळा आत्माने जे जाणे तेने सर्वगतपणुं प्रतीत
करनारने अखंड आत्मस्वभावनो आश्रय थाय छे.
धर्म रहेला छे; माटे ते द्रव्यना आश्रये ज तेना धर्मनी यथार्थ प्रतीत थाय छे, पण कोई परना, निमित्तना के
भेदना आश्रये तेनी प्रतीत थती नथी. जो द्रव्यथी तेना धर्मने जुदो पाडीने प्रतीतमां लेवा जाय तो त्यां धर्मीनुं
के धर्मनुं एकेयनुं साचुं ज्ञान थतुं नथी.