Atmadharma magazine - Ank 110
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

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: ३० : आत्मधर्म : ११०
कारण–कार्यभाव

प्रथम ज सर्व सिद्धांतनुं मूळ ए छे के वस्तुना
कारण–कार्य जाणवा; जेटला संसारथी पार थया छे ते
सर्वे परमात्मानां कारण–कार्य जाणी जाणीने थया छे.
त्रणे काळे जे परमात्माने ध्याववाथी मुक्त थया तेना
(–ते परमात्माना) कारण–कार्य जो न जाण्या तो तेणे
शुं जाण्युं? (कांई जाण्युं नथी.) माटे कारण–कार्य
जाणवा जोईए.
ते कारण–कार्य कई रीते ऊपजे छे ते कहीए
छीए:–
*पुव्वपरिणामजुत्तं कारणभावेण वट्टदे दव्वं।
उत्तरपरिणामजुदं तं चिय कज्जं हवे णियामा।।
सिद्धांतमां एम बताव्युं छे के पूर्व परिणमयुक्त
जे द्रव्य छे ते कारणभाव (रूप) परिणमेलुं छे (अने)
उत्तर परिणामयुक्त जे द्रव्य छे ते कार्यभाव (रूप)
परिणामेलुं छे. केम के पूर्व परिणाम उत्तर परिणामनुं
कारण छे, पूर्व परिणामनो व्यय ते उत्तर (परिणाम) ना
उत्पादनुं कारण छे. जेम–माटीना पिंडनो व्यय घट कार्यनुं
कारण छे.
कोई प्रश्न करे के– उत्तर परिणामना उत्पादमां
शुं कार्य थाय छे?
तेनुं समाधान–स्वरूपलाभ लक्षणवाळो उत्पाद
छे, स्वभाव प्रच्यवन लक्षणवाळो व्यय छे; तेथी
स्वरूपलाभमां कार्य छे.–आ निःसंदेह जाणो.–उत्पादना
कार्यरूप स्वरूप–लाभ) परमात्मामां समये समये थाय
छे. माटे हे संतो! एवा कारण–कार्यने परिणाम द्वारा
जाणो कारण अने कार्य परिणामथी ज थाय छे.
वस्तुना उपादानना बे भेद कह्या छे, ते कहीए
छीए:– अष्टसहस्त्रीमां कह्युं छे के–
* जुओ, स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा गा. २२२ अने २३०.
१. जुओ, गुज. प्रवचनसार पृ १५०.
२. जुओ, श्लोक ५८ नी टीका, पृ. २१०
त्यक्ताडत्यक्तात्मरूपं यत् पूर्वापूर्वेण वर्तते।
कालत्रयेडपि तद्द्रव्यमुपादानमिति स्मृतम्।।
यत्स्वरूपं त्यजत्येव यन्नात्यजति सर्वथा।
तन्नोपादानमर्थस्य क्षणिकं शाश्वतं यथा।।
अर्थ:–द्रव्यनो त्यक्त स्वभाव तो परिणाम
(रूप)–व्यतिरेक स्वभाव छे, अने अत्यक्त स्वभाव
गुणरूप–अन्वय–स्वभाव छे. ते गुण तो पूर्वे हता ते
ज रहे छे, परिणाम अपूर्व–अपूर्व थाय छे. आ द्रव्यनुं
उपादान छे ते परिणामने तो तजे छे पण गुणने
सर्वथा तजतुं नथी; तेथी
परिणाम क्षणिक उपादान छे अने गुण शाश्वत
उपादान छे. वस्तु उपादानथी सिद्ध छे.
अहीं कोई प्रश्न करे छे के उत्पादादि जीवादिकथी
भेदस्वरूपे सधाय छे के अभेदरूप सधाय छे? जो
अभेदरूप सधाय छे तो त्रिलक्षणपणुं न होय, जो
भेदरूप सधाय छे तो सत्ताभेद थतां सत्ता घणी थई,
त्यां, विपरीतता थाय छे.
तेनुं समाधान:–लक्षणभेद छे, सत्ताभेद नथी,
तेथी सत्ता अपेक्षाए अभेद अने संज्ञादि (अपेक्षाए)
भेद जाणवो. वस्तुनी सिद्धि उत्पाद–व्यय–धु्रव त्रणेथी
छे. अष्टसहस्त्रीमां कह्युं छे के.–
पयोव्रतो न दध्यत्ति न पयोडत्ति दधिव्रतः।
अगोरसन्नतो नोभे तस्मात्तत्वं त्रयात्मकम्।। ६०।।
घट मौलि–सुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम्।
शोक–प्रमोद–माध्यस्थं जनो याति सहेतुकम्।। ६१।।
[देवागाम–आप्तमीमांसा]
जेम कोई पुरुषे दूधनुं व्रत लीधुं छे के हुं दूध ज
पीश. ते दहीनुं भोजन करतो नथी, अने जेने दहींनुं
व्रत छे ते दूधनुं भोजन करतो नथी, तथा जेने
गोरसनो
(अनुसंधान पृष्ठ ३२ उपर)