शुद्धनयथी आत्मानुं स्वरूप केवुं छे ते आचार्यदेव ओळखावे छे–
अविशेष, अणसंयुक्त, तेने शुद्धनय तुं जाणजे.१४.
शुद्धनयनो उपदेश छे. वळी ‘...
के हे शिष्य! तुं आवा शुद्धनयने जाण!–तो सामे तेवुं जाणनार शिष्य न होय एम बने नहि.
बंधरहित ने परना स्पर्शरहित, अन्यपणारहित, चळाचळतारहितविशेषरहितअन्यना संयोगरहित–
ज आ संसारभ्रमण मटयुं नथी. ‘हुं क्रोधी, हुं मनुष्य, हुं परना संबंधवाळो’ –एम अनादिथी जीव मानी रह्यो
छे, पण क्रोध विनानो, देह विनानो ने परना संबंध विनानो शुद्धज्ञायक–मूर्ति आत्मा हुं छुं’–एम शुद्धनयथी कदी
जाण्युं नथी. माटे आचार्यदेव ते जाणवानो उपदेश आपे छे. आवो शुद्धनयनो उपदेश सांभळवा जे शिष्य
जिज्ञासाथी ऊभो छे ते पण ए ज जाणवा मांगे छे के प्रभो! अनादिकाळथी हुं मारा आत्माने अशुद्ध अने
संयोगवाळो ज मानीने अत्यार सुधी संसारमां रखड्यो, पण शुद्धनयथी में मारा आत्माने कदी ओळख्यो नहि;
हवे मारे शुद्धनय अनुसार मारा आत्मानुं स्वरूप जाणवा योग्य छे,–के जे जाणवाथी सम्यग्दर्शन थईने मारी
मुक्ति थाय. आ प्रमाणे पोताना शुद्धआत्माने जाणवानी ज शिष्यने प्रधानता छे, बीजी अप्रयोजनभूत बाबत
जाणवानी प्रधानता नथी. ज्ञानना उघाडथी बीजी अप्रयोजनभूत वातो जणाय तो तेनुं अभिमान नथी अने न
जणाय तो तेनो खेद नथी, शुद्ध आत्माने जाणवानी ज धगश अने उत्साह छे.
छे. जुओ, जे शिष्य जिज्ञासु थईने पूछे छे तेने श्रीगुरु कहे छे के तुं आवा आत्माने जाण! पण जेने जिज्ञासा
नथी तेने पराणे संभळाववा नथी जता. तत्त्वार्थसूत्रमां ‘
अल्पकाळमां मुक्ति थवानी छे अने वर्तमानमां जे मोक्षमार्गना श्रवणनी झंखनावाळो छे–एवा शिष्यने माटे
आ सूत्र प्रवर्तमान थयुं छे. तेम अहीं प्रश्नकार शिष्यने अल्पकाळमां भवभ्रमणथी छूटकारो