Atmadharma magazine - Ank 110
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

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: ३४ : आत्मधर्म : ११०
केम थाय तेनी झंखना थई छे अने तेथी शुद्ध आत्मानुं स्वरूप जाणवा माटे प्रश्न पूछे छे; शुद्ध आत्मानो
अनुभव केम थाय ते सांभळवानी अने समजवानी झंखनावाळो छे,–एवा शिष्यने श्री आचार्यदेव कहे छे के हे
शिष्य! जे नय आत्माने अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष अने असंयुक्त जाणे छे तेने तुं शुद्धनय जाण.
आ रीते आवी झंखनावाळा पात्र शिष्यने माटे ज आ सूत्र निमित्त छे, एटले उपादान–निमित्तनी संधि छे.
जेने मोक्षमार्ग समजवानी जिज्ञासा नथी, ने सांभळवामां उत्साह नथी एवा ठूंठ जेवा जीवने ज्ञानी
मोक्षमार्गनो उपदेश संभळावता नथी. जेने आत्मानी दरकार नथी ने भवभ्रमणनो भय नथी–एवा जीवोनी
अहीं वात नथी. भले गृहस्थाश्रममां होय, पण जेनो आत्मा अंतरथी झंखना करतो पूछे छे के शुद्धआत्मा केवो
छे?–तेनी अनुभूति कई रीते थाय?–आम शुद्धआत्माना अनुभवनी रीत जाणीने तेवो अनुभव करवा माटे जे
पात्र थयो छे एवा शिष्यने श्री आचार्यदेव समजावे छे. गुरु केवा होय अने शिष्यनी पात्रता केवी होय–ते बधी
वात आमां आवी जाय छे. पात्र शिष्य पोते श्रीगुरु पासे जईने विनयपूर्वक पूछे छे.
आ शास्त्रकर्ता तो मुनि छे, आत्माना अनुभवनी धूनमां मस्त रहेनारा ने वन–जंगलमां वसनारा
महान दिगंबर संत छे. मुनिओ तो जंगलमां गिरिगुफामां क्यांक वसता होय छे, वस्तीमां तो क्यारेक ज आवे
छे. पात्र शिष्य होय ते पोते गुरुनी शोधमां जाय छे. आत्माना अनुभव माटे तलसतो शिष्य घरबार अने
वेपार–धंधानी प्रवृत्ति छोडीने मुनिमहात्मानी शोधमां चाली नीकळे छे. ‘वर्ते अंतर शोध’ अंतरमां आत्मानी
शोधमां वर्ततो शिष्य निमित्त तरीके संतने शोधे छे. हुं घरे क्यारे पाछो आवीश अने वेपार–धंधो के आहार–
पाणी क्यारे करीश–एवी संसारनी चिंतानो बोजो छोडीने, जंगलमां मुनिने शोधीने तेमनी पासेथी आत्मा
समजवानो कामी छे, एवो शिष्य ज्ञानी संत मळतां तेमने धगशथी पूछे छे के हे नाथ! शुद्धात्मानी अनुभूति
केवी रीते थाय? एवा पात्र शिष्यने श्रीगुरु समजावे छे के हे भाई! आत्माना भूतार्थस्वभावनी समीप जईने
अनुभव करतां शुद्धआत्मानी अनुभूति थाय छे. कर्मनो संबंध अने अशुद्धता तो अभूतार्थ छे, आत्माना
भूतार्थस्वभावमां ते नथी, तेथी भूतार्थस्वभावनी द्रष्टिथी एटले के शुद्धनयथी कर्मना संबंध रहित अने
अशुद्धता रहित एवा आत्मानी अनुभूति थाय छे. आवुं समजनार शिष्य केवो छे?–के मारे वेपार–धंधो खोटी
थाय छे माटे हुं झट घेर जाउं–एवुं तेना मनमां नथी, तेनाथी तो ते उदासीन छे अने आत्मा समजवा माटे तेनुं
अंतर तलसे छे; आवा सुपात्र शिष्यने आचार्यदेव आ सूत्र द्वारा शुद्ध आत्मा समजाव्यो छे.
आ काळे आवा वीतरागी दिगंबर संत मुनिराजना दर्शन तो अत्यंत दुर्लभ थई पड्या छे, परंतु
आत्मज्ञानी संत मळवा पण दुर्लभ छे. जे जिज्ञासु जीव होय ते ज्ञानी गुरुने शोधीने–ओळखीने तेमनी पासे
जईने विनयथी पूछे छे. श्रीगुरुए आत्मानुं स्वरूप जे प्रमाणे कह्युं ते प्रमाणे झीलीने ज्ञानमां धारी राख्युं छे ने
पछी तेनो अनुभव करवा माटे झंखनाथी पूछे छे के प्रभो! आपे जेवो कह्यो तेवा आत्मानी अनुभूति केम
थाय? ते पोताना मनमां एम संदेह नथी करतो के ‘अरे रे! मने आवा शुद्धात्मानो अनुभव नहि थई शके.’
पण ‘हुं आवा आत्मानो अनुभव करुं, आ ज मारे करवा योग्य छे’–एम उल्लासित अने उद्यमी थईने तेनी
रीत पूछे छे. अनुभव नहि थई शके–एम नथी मानतो, पण अनुभव करवा माटे पूछे छे के प्रभो! आपे जेवो
कह्यो तेवा शुद्धआत्मानी अनुभूति कई रीते थाय ते जणावो! पर्यायमां शुद्धआत्माना आनंदनुं वेदन केम थाय
ते माटे शिष्य अंतरथी पोकार करी रह्यो छे. तेने श्री आचार्यदेव कहे छे के हे भव्य! पर्यायमां जे आ बंधन अने
अशुद्धतारूप भावो देखाय छे ते अभूतार्थ छे तेथी, आत्माना भूतार्थस्वभावनी द्रष्टिथी अनुभव करतां ते
बंधन अने अशुद्ध भावोथी रहित एवा शुद्धआत्मानी अनुभूति थाय छे. कर्मनो संबंध अने विकारी भावो
आत्मानी क्षणिक पर्यायमां छे खरा, पण ते आत्मानुं त्रिकाळी स्वरूप नथी, तेथी त्रिकाळी स्वरूपनी द्रष्टिथी
अनुभव करतां अबंधस्वभावी एकरूप शुद्धआत्मानो अनुभव थाय छे.–आवो अनुभव करवो ते अपूर्व धर्म
अने मोक्षमार्ग छे.
‘श्री गुरु आवो आत्मा कहेवा मांगे छे अने आ ज मारे आदरणीय छे’–एम श्रीगुरुए कहेलो आत्मा
नक्की करीने तेना अनुभव माटे झंखता शिष्यने अंदरथी प्रश्न