Atmadharma magazine - Ank 110
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

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: ३६ : आत्मधर्म : ११०
अने संयोगनी समीपता करी छे ने तेथी अशुद्धतानो अनुभव कर्यो छे, तेने बदले हवे तेमनाथी दूर था ने
अंतरना स्वभावनी समीप जईने तेनो अनुभव कर, तो आत्मा शुद्धपणे अनुभवमां आवे. बहारमां पोतापणुं
मान्युं ते मोहथी आ संसार ऊभो थयो छे, अंर्तमुख थईने आत्माने अवलोकतां मोहनो नाश थईने मुक्ति
प्रगटे छे.
• • •
शुद्धनय कोने कहेवाय ते अहीं आचार्यदेवे बताव्युं छे एटले केवा आत्माने शुद्धनय अनुभवे छे ते
वर्णव्युं छे. शुद्धनयथी जोतां चैतन्यस्वभावमां परनो संयोग छे ज नहि, जड कर्मो तेने कदी अड्यां ज नथी.
आत्मा त्रिकाळी पदार्थ छे, ते क्षणिक विकार पुरतो के संयोग पुरतो नथी. अज्ञानी जीव पोताना त्रिकाळी
स्वभावनी द्रष्टि चूकीने वर्तमान संयोग अने विकार पुरतो ज पोताने माने छे. आत्मा त्रिकाळी सत् पदार्थ छे
तेने परसंयोगथी अने संयोगीभावोथी ओळखतां तेनुं खरुं स्वरूप जणातुं नथी. आत्मानी क्षणिक पर्यायमां
कर्मना संगे अनेक आकार विकार अने प्रकार थाय छे, तेमनाथी आत्माने ओळखतां–एटले के ते ज आत्मा छे
एम मानतां–आत्मानी पर्यायमां हीणप अने दुःख थाय छे. परना संबंधथी पोतानी ओळखाण आपवामां
लोकोमां पण हीणप गणाय छे, सासराना संबंधथी जमाईनी ओळखाण आपवामां आवे तो त्यां जमाईनी
हीणप गणाय छे. तेम चैतन्य–भगवान आत्माने तेना पोताना असली स्वभावथी न ओळखतां, परसंगथी
अने विकारथी ओळखवो ते कलंक छे. आत्माने कर्मना संगवाळो ने कर्मना संयोगे थता क्षणिक विकारवाळो ज
मानीने अशुद्ध अनुभववो अने तेना शुद्ध स्वभावने न अनुभववो ते अज्ञान छे–कलंक छे–लज्जा छे. त्रिकाळी
आत्मस्वभावने परसंग वगरनो शुद्ध एकरूप ओळखीने तेनो अनुभव करवो ते यथार्थ छे, तेमां आत्मानी
शोभा छे. तेथी अहीं शुद्धनयथी आत्मानो अनुभव करवानो उपदेश करे छे.
आत्मा परना संग वगर त्रिकाळ पोताना एक चैतन्यप्राणथी ज जीवे छे, तेने बदले दस जड प्राणोना
संगथी आत्मा जीवे छे–एम ओळखवुं ते लज्जास्पद छे, तेमां चैतन्यनो यथार्थ महिमा प्रतीतमां आवतो नथी,
आत्माना स्वतंत्र चैतन्यजीवननी ओळखाण आवती नथी. जे जीव आवा शुद्धस्वभावनी द्रष्टि करवा मांगे छे
तेणे व्यवहारे पर्यायमां विकार अने कर्मनो संग छे–एम तो जाण्युं छे; केम के पर्यायमां विकार अने कर्मनो संबंध
छे तेने जो न माने तो ‘तेनाथी रहित शुद्धआत्मानो अनुभव कई रीते थाय?’–एवो प्रश्न ऊगवानो अवकाश
रहेतो नथी, अने व्यवहारनो निषेध करीने परमार्थस्वभावनी द्रष्टि करवानुं तेने रहेतुं नथी. जे व्यवहारने जाणे
ज नहि ते अज्ञानी छे, तेम ज व्यवहारनो निषेध करीने परमार्थ–स्वभावने अनुभवे नहि तो तेने पण अज्ञान
टळतुं नथी. पर्यायमां व्यवहार छे तेने जाणवा छतां गौण करीने–अभूतार्थ करीने, शुद्धनय वडे आत्माना
भूतार्थस्वभावनो अनुभव करे तेने सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान थाय छे.
आ मूळ सूत्रमां तो भगवान आचार्यदेवे शुद्धनयना विषयभूत आत्मानुं ज वर्णन कर्युं छे; अने टीकामां
आचार्यदेवे अस्ति–नास्तिथी निश्चय व्यवहार बने पडखां बताव्यां छे तथा तेमां व्यवहारनो निषेध करीने
आत्माना परमार्थस्वभावनो अनुभव करवो ते शुद्धनय छे–एम जणाव्युं छे.
भगवान आत्मा चैतन्यमूर्ति छे, ते स्वभावथी कर्मना संयोग वगरनो छे; कर्मथी ते बंधायेलो तो नथी
ने कर्मने ते स्पर्श्यो पण नथी. शुद्धनयथी बधाय आत्मानो आवो ज स्वभाव छे, आवा आत्मस्वभावनी
कबूलात करवी ते प्रथम अपूर्व धर्म छे.
आत्मवस्तुनी पर्यायमां बाल, युवान, नानुं, मोटुं, ढोर, माणस वगेरे जे अनेक आकारो थाय छे ते
एकरूप असंख्यप्रदेशी चैतन्यना स्वभावनी द्रष्टिथी जोतां आत्मामां नथी, आत्मा तो सदा एक
चैतन्यआकारवाळो छे, ढोर–मनुष्य वगेरे जुदा जुदा पर्यायना भेदो तेनामां नथी. असंख्यप्रदेशी चैतन्यपिंड
त्रिकाळ एकरूप छे ते जुदा जुदा अनेक आकारोपणे परमार्थे थई जतो नथी. जेम लोटो, तपेली वगेरे वासणना
संयोगथी जोतां पाणी भिन्न भिन्न अनेक आकारपणे जणाय छे, पण पाणीना स्वभावने जोतां ते भिन्न
भिन्न आकारो तेनुं खरुं कायमी स्वरूप नथी, पाणी तो एकरूप पाणी ज छे; तेम शरीरना निमित्ते आत्माना
प्रदेशोनी अवस्थामां भिन्न भिन्न अनेक आकारो जणाय छे पण ते तेनुं कायमी स्वरूप नथी,