Atmadharma magazine - Ank 110
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

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मागशर : २४७९ : ३७ :
कायम एकरूप असंख्यप्रदेशी आत्मा छे. शुद्धनयथी आवा एकरूप आत्मानो अनुभव करवो ते सम्यग्दर्शन छे.
पर्यायनी हीनाधिकताना अनेक प्रकारो छे ते क्षणिक छे, तेनी द्रष्टिथी आत्मानुं कायमी एकरूप स्वरूप
जणातुं नथी. आत्मा कायम एकरूप ज्ञानस्वरूपे रहे छे, नियत एकस्वरूपे स्थिर छे. पर्यायना भेदोने गौण
करीने आवा परमार्थस्वभावने द्रष्टिमां लेतां शुद्ध आत्मानो अनुभव थाय छे.
वळी शुद्धनयना विषयरूप आत्मा अविशेष छे एटले के दर्शन–ज्ञान–चारित्र वगेरे गुणभेदोथी रहित
एकरूप अभेद वस्तु छे. गुणोनो भेद पाडीने जोतां परमार्थ आत्मा अनुभवमां आवतो नथी. गुणभेदना लक्षे
पण विकल्प थाय छे, ते गुणभेदना विकल्पमां रोकातां शुद्धआत्मानो अनुभव थतो नथी. शुद्धनय तो भेदना
विकल्पथी रहित छे, शुद्धनयथी आत्मानो अनुभव करे त्यारे तेमां विकल्प होतो नथी. माटे गुणभेदनो विकल्प
करे तो ज आत्माने मान्यो कहेवाय–एम नथी, पण गुणभेदना विकल्पथी पण जुदो पडीने एकाकार
आत्मस्वभावने शुद्धनयथी स्वीकारे तेणे आत्माने जाण्यो छे. शुद्धनयथी आवा आत्मानी द्रष्टि प्रगट्या पछी
भेदनो विकल्प ऊठे ते मात्र अस्थिरतानो विकल्प छे, ते वखते य धर्मीनी द्रष्टिमां तो अभेदस्वभावनो ज
स्वीकार छे.
द्रव्यथी, क्षेत्रथी, काळथी के भावथी भेद वगरनो एकाकार शुद्धआत्मस्वभाव छे ते परना संपर्क विनानो
छे; खरेखर राग–द्वेष–मोह पण आत्माना शुद्धस्वभावथी पर छे, तेथी आत्मा तेनाथी पण असंयुक्त छे.
स्वभावथी तो आत्मा त्रिकाळ राग–द्वेष–मोह विनानो छे ज, अने ज्यां ते स्वभावने लक्षमां लईने पर्याये ते
स्वभावनी समीपता करी त्यां पर्याय राग–द्वेष–मोहथी दूर थई एटले ते पर्यायमां पण असंयुक्तपणुं प्रगट्युं.
‘हुं राग–द्वेष–मोहथी संयुक्त नथी, हुं तो शुद्ध ज्ञानस्वरूप छुं’–एम शुद्धनयथी पोताना स्वभावने पकडीने तेनो
अनुभव कर्यो त्यां पर्याय पर साथे संयुक्त न थई पण स्वभावमां संयुक्त थई एटले आत्मा संयुक्त थयो.
पोतानी पर्यायने परसंगथी खसेडीने, ज्ञायकस्वभाव तरफ वाळीने पर्यायमां राग–द्वेष–मोहथी असंयुक्तपणुं जे
प्रगट करे तेणे ज खरेखर असंयुक्त आत्मस्वभावने जाण्यो छे. आ रीते पर्यायमां परिणमन सहितनी आ
वात छे. जे जीव शुद्धनयथी आत्मस्वभावने स्वीकारे तेने पर्यायमां पण शुद्धतानुं परिणमन थया विना रहे ज
नहि.
जिज्ञासु शिष्ये एम पूछयुं छे के : प्रभो! निश्चयथी अबद्धस्पृष्ट अनन्य नियत अविशेष अने असंयुक्त
एवा आत्मानी अनुभूति ते शुद्धनय छे–एम आपे कह्युं, तो एवा आत्मानी अनुभूति कई रीते थाय?–आम
पूछनार शिष्यने आचार्यदेव आ वात समजावे छे. जे शिष्य आ वात सांभळवा आव्यो छे तेने हजी अनुभव
थयो नथी पण ते शुद्धात्माना अनुभवनो कामी छे, जगतना मान–आबरूनो के विषय–कषायनो कामी नथी,
रागनो ने व्ययहारनो कामी नथी पण अंतरमां आत्मानो अनुभव थईने भवभ्रमण केम मटे तेनो ज कामी छे.
ते व्यवहारने तो जाणे छे, रागथी ने पराश्रयथी धर्म मनावनारा एवा कुदेव–कुगुरु–कुशास्त्रनी श्रद्धा छूटीने तेने
साचा देव–गुरु–शास्त्रनी श्रद्धा थई छे अने हवे शुद्धनय केवो छे ते जाणवा मांगे छे. आवा पात्र शिष्यने
संबोधीने ‘
तं सुद्धणयं वियाणीहि’ एम कहीने आचार्यदेवे शुद्धनयने जाणवानो आदेश कर्यो छे. आमां
शुद्धनयनो उपदेश सांभळनार शिष्यनी तैयारी अने पात्रता केवी होय ते पण आवी जाय छे. आवी
तैयारीवाळा शिष्यने शुद्धनयनो उपदेश परिणमी जाय छे अने अंतरमां तेने शुद्धआत्मानो अनुभव थाय छे.
ज्यां शुद्धनयथी अभेद आत्माने जाणीने तेनो अनुभव कर्यो त्यां सम्यग्ज्ञाननी अपूर्व कळा प्रगटीने
आत्मा साथे भळी अने मोह दूर थयो, त्यारे आत्मा साक्षात् असंयुक्त थयो. पर्यायमां असंयुक्तपणुं प्रगट्या
वगर असंयुक्त आत्माने मान्यो कहेवाय नहि; केम के असंयुक्त आत्मस्वभावने स्वीकारनारी तो पर्याय छे, ते
पर्याय पोते जो मोहथी जुदी पडीने असंयुक्त न थाय तो त्रिकाळी मोहरहित एवा असंयुक्त आत्माने तेणे कई
रीते स्वीकार्यो? जे जीव आत्माने कर्मना संगवाळो के भेदना विकल्पवाळो अशुद्ध ज अनुभवे छे तेने अमे
आत्मा कहेता नथी पण पुण्य कहीए छीए; ते जीवना अनुभवमां आत्मा नथी आव्यो पण पुण्यना विकल्पने
ज आत्मा मानीने ते अनुभवे छे. पुण्यना क्षणिक विकल्पने ज आत्मा मानीने जे अनुभवे छे ते मिथ्याद्रष्टि छे.
शुद्धनयथी आत्मानुं परमार्थ स्वरूप जाण्या विना ते मिथ्याद्रष्टिपणुं टळे नहि ने धर्म थाय नहि. निश्चयथी
आत्मा परना संबंध वगरनो, विकार वगरनो ने भेद वगरनो एकाकार