Atmadharma magazine - Ank 110
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

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: ३८ : आत्मधर्म : ११०
ज्ञायकमूर्ति छे, जे पर्याय अंतरमां आवा आत्माने जाणीने तेमां अभेद थाय ते शुद्धनय छे, अने ते ज आत्मा
छे, शुद्धनय अने आत्मा भिन्न नथी. शुद्धनयथी आत्मानी अनुभूति प्रगटी ते आत्मा साथे अभेद छे तेथी ते
आत्मा ज छे.
वर्तमान कर्मना संगे जोतां आत्मानी पर्यायमां पोताना ज अपराधथी बंधन अने अशुद्धता छे खरा,
पण ते आत्मानुं कायमी स्वरूप नथी, तेथी तेना लक्षे आत्माना शुद्धस्वरूपनी अनुभूति थती नथी. निश्चयथी
आत्मानो कायमी स्वभाव बंधन अने अशुद्धताथी रहित, ज्ञानानंदथी अभेद छे, ते भूतार्थस्वभावना लक्षे
शुद्ध–आत्मानी अनुभूति थाय छे. आवो स्वभाव समजीने तेनो अनुभव करवो ते ज धर्मनी रीत छे अने ते ज
मुक्तिनो मार्ग छे.
शिष्ये एम पूछयुं के प्रभो! पर्यायमां आ विकारी भावो होवा छतां तेनाथी रहित शुद्धआत्मानो
अनुभव कई रीते थाय? श्री आचार्यदेव तेने कहे छे के भाई! ते विकारी भावो तारा स्वभावघरनी चीज नथी,
तेओ तारा आत्मामां घर घालीने कायम रहेनारा नथी, ते तो मात्र क्षणिक पर्यायमां ज छे, माटे पर्यायद्रष्टि
छोडीने द्रव्यनी सामे जोतां ते विकारी भावोथी रहित शुद्धआत्मस्वभावनी अनुभूति थई शके छे. पर्यायद्रष्टिमां
तने आत्मा बंधायेलो अने अशुद्ध देखाय छे, पण आत्मानो आखो स्वभाव बंधनरूप के अशुद्ध थई गयो
नथी, स्वभावथी तो ते शुद्ध ज छे, माटे स्वभावद्रष्टिथी जोतां बंधन अने अशुद्धताथी रहित शुद्धआत्मानो
अनुभव थाय छे.
आत्मानी पर्यायमां बंधन अने अशुद्धता छे–ईत्यादि व्यवहारना प्रकारो जाण्या, तेम ज निश्चयथी
आत्मा बंधन अने अशुद्धताथी रहित छे–एम पण जाण्युं,–ए रीते बंने पडखां लक्षमां लईने तेमांथी
अबद्धस्पृष्ट स्वभावनी रुचि करीने शिष्ये पूछयुं के प्रभो! आवा आत्मानो अनुभव कई रीते थाय? त्यारे
श्रीगुरुए कह्युं के बदस्पृष्टपणुं वगेरे भावो अभूतार्थ छे अने अबद्धस्पृष्ट आत्मस्वभाव छे ते भूतार्थ छे; ते
बद्धस्पृष्टपणुं वगेरे भावो अभूतार्थ होवाथी शुद्धआत्मानो अनुभव थई शके छे; आत्माना भूतार्थस्वभावनी
समीप जईने अनुभव करतां शुद्धआत्मानो अनुभव थाय छे, अने एवो अनुभव करवो ते शुद्धनय छे; ते
अपूर्व कर्तव्य छे. पंदरमी गाथामां तो आचार्यदेव कहे छे के जे पुरुष अबद्धस्पृष्ट–अनन्य–अविशेष–नियत अने
असंयुक्त आत्माने देखे छे ते सर्व जिनशासनने देखे छे, आवा शुद्ध आत्मानी अनुभूति ते समस्त
जिनशासननी अनुभूति छे. एटले शुद्धनय वडे आवा शुद्धआत्माने जाणीने तेनो अनुभव करवो ते आखा
जैनशासननो सार छे, ते ज जैनशासननुं रहस्य छे. जेणे आवो शुद्धआत्मा अनुभव्यो तेणे आखा
जैनशासनने जाण्युं. अने जे आवा शुद्धआत्माने न जाणे तेणे जैनशासनने जाण्युं नथी.
–श्री समयसार गा. १४ उपरना प्रवचनमांथी
जो भवथी छूटवुं होय तो....
हे जीव! जो तारे भवथी छूटवुं होय, पुण्य–पापनी पराधीनताथी
मुक्त थवुं होय, पूर्ण स्वतंत्र सहजात्मस्वभाव अखंडानंद आत्मभाव
प्रगट करवो होय तो ‘हुं ज्ञानस्वभावी आत्मा छुं’ एम आत्माने समज्ये
ज छूटको छे. ते समजवा माटे निवृत्ति लई, आत्मज्ञानी पासेथी सत्नुं
श्रवण करी आत्मानुं खूब मनन अने माहात्म्य करवुं जोईए. पूर्वे कदी
नहि जाणेल एवा सूक्ष्म अने यथार्थ विषयने समजवा माटे अत्यंत तीव्र
अने सत्पुरुषार्थ जोईए.
–प्रवचनमांथी.