Atmadharma magazine - Ank 110
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

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: २८ : आत्मधर्म : ११०
प्रतीतमां आवी गई.
निमित्त वगेरे परवस्तु तो आत्मामां कदी एक क्षण पण व्यापती नथी, विकार तथा परोक्षपणुं एक
समयपूरती पर्यायमां ज व्यापक छे, त्रिकाळी आत्मामां ते व्यापक नथी, ने आ प्रत्यक्ष स्वसंवेदनरूप
प्रकाशशक्ति तो आत्मामां त्रिकाळ व्यापक छे, आखा आत्माना समस्त गुण–पर्यायोमां ते व्यापक छे. जेणे
आत्मानी आवी स्वयंप्रकाशशक्ति स्वीकारी, तेने पर्यायमां परोक्षज्ञान होवा छतां तेनो आदर न रह्यो, पण
त्रिकाळ स्वभावनो ज आदर रह्यो; तेना आश्रये ज सम्यक्श्रद्धा–ज्ञान–चारित्र अने मोक्षदशा थाय छे. अहीं तो,
आत्मा स्वयंप्रकाशमान स्पष्ट स्वानुभवरूप छे एम अस्तिथी वात करी, पण परोक्षपणुं नथी–एम नास्तिनी
वात न करी. निश्चयनी अस्तिना अवलंबनमां व्यवहारनो निषेध आवी ज गयो.
अज्ञानी कहे छे के ‘निमित्त अने व्यवहारनां आश्रयथी धर्म थवानी तमे ना पाडो छो, तो शुं निमित्त
नथी?–व्यवहार नथी?’–आम कहीने ते निमित्त अने व्यवहारना आश्रयथी लाभ मनाववा मांगे छे. पण
ज्ञानी कहे छे के अरे भाई! निमित्त अने व्यवहार नथी–एम कोणे कह्युं?–पण तेना आश्रये लाभ थाय–एवी
वात क्यांथी लाव्यो? जगतमां तो बधुं य छे; निमित्त छे–तेथी शुं?–शुं तेने लीधे आत्माने ज्ञान थाय छे?
व्यवहारनो राग अने विकल्प छे–तेथी शुं?–शुं तेना वडे सम्यक्श्रद्धा–ज्ञान–चारित्र थाय छे? एम कदी थतुं नथी.
जीवने संसार छे, पण शुं ते संसार छे तेने लीधे आत्मानी मुक्ति थाय छे? जेम संसार छे पण ते कांई मोक्षनुं
कारण नथी, तेम निमित्त अने व्यवहार छे पण ते कांई धर्मनुं कारण नथी; संसारनो नाश थतां मोक्षदशा प्रगटे
छे, तेम निमित्त अने व्यवहारनुं अवलंबन छोडीने परमार्थरूप आत्मद्रव्यनुं अवलंबन करवाथी धर्म थाय छे.
जुओ, आमां व्यवहार अने निमित्त स्थपाय छे के उथापाय छे? व्यवहार अने निमित्त छे एम तो स्थपाय छे,
पण ते निमित्तना अवलंबनथी धर्म थाय के व्यवहार करतां करतां धर्म थाय ते वात उथापाय छे; व्यवहार अने
निमित्तनुं अवलंबन करतां करतां धर्म थवानुं जे माने ते मिथ्याद्रष्टि छे–एम नक्की करवुं, अने पोते एवी
मान्यता छोडीने शुद्धस्वभावनी रुचि अने अवलंबन करवुं ते कल्याणनो उपाय छे.
अहो! एकेक शक्तिना वर्णनामां आचार्यदेवे आखो भगवान बतावी दीधो छे; दिव्यध्वनिनो सार, बार
अंगनो सार शुद्ध आत्मा छे. एवा शुद्ध आत्मद्रव्यनी प्रतीत ते धर्मनुं प्रथम पगथियुं छे, ते ज मुक्तिनुं पहेलुं
सोपान छे. पहेलांं पोताना शुद्धआत्मद्रव्यनो आश्रय कर्या वगर सम्यक् प्रतीति थती नथी, अने सम्यक् प्रतीति
वगर पोताने व्रत–पडिमा के मुनिपणुं मानवुं ते तो अरण्यमां रुदन करवा जेवुं छे, ते कोण सांभळे? आत्मानी
सन्मुख थईने तेनी प्रतीत कर्या वगर अंदरथी आत्मा जवाब आपे तेवो नथी.
जुओ, आ कोनुं वर्णन चाले छे? कोई बहारनी वस्तुनुं आ वर्णन नथी, पण अंदरमां पोतानी
चैतन्यवस्तु अनंत गुणथी परिपूर्ण छे–तेने आचार्यदेव ओळखावे छे. तारा आत्मामां प्रकाशशक्ति एवी छे के
जे स्वयं प्रकाशमान छे, लोकालोकने स्पष्ट जाणे एवुं तेनुं सामर्थ्य छे, अने ते पोताना आत्माना स्वसंवेदनमय
छे. पोताने तो स्वसंवेदनथी प्रत्यक्ष जाणे छे ने परने पण प्रत्यक्ष जाणे छे, परथी आत्मा जुदो छे माटे तेनुं
प्रत्यक्षज्ञान न थाय–एम नथी; परथी भिन्न होवा छतां परने पण स्पष्ट–प्रत्यक्ष जाणे छे–एवो आत्मानो
प्रकाश–स्वभाव छे. प्रत्यक्षपणुं कांई परमां नथी रहेतुं, प्रत्यक्षपणुं तो ज्ञानमां छे. वळी कोई एम कहे के ‘आत्मा
पोते पोताने प्रत्यक्ष न जाणी शके’–तो एम कहेनारे चैतन्यतत्त्वने आंधळुं मान्युं छे एटले के चैतन्यतत्त्वने तेणे
जाण्युं नथी. चैतन्यतत्त्व आंधळुं नथी के पोताने पोतानो अनभव करवा माटे कोई बीजानी मदद लेवी पडे!
पण ते तो एवुं स्पष्ट प्रकाशमान छे के पोते स्वयं पोतानो प्रत्यक्ष स्वानुभव करे छे.
कोई कहे के आत्मानो पूर्ण प्रत्यक्ष अनुभव तो केवळीने होय, नीचली दशामां न होय. तो तेनुं समाधान
: अहीं वस्तुना स्वभावनी वात छे, वस्तु तो त्रिकाळी केवळी ज छे, वस्तुमां जो पूर्ण प्रत्यक्ष केवळज्ञाननुं
सामर्थ्य न होय तो ते आवशे क्यांथी? अने ज्यां आवी वस्तुनी प्रतीत करी त्यां पोताने पोतानी मुक्तिनी पण
निःशंक खबर पडे छे. आत्मानो स्वभाव स्वयं प्रकाशमान छे एटले पोतानी पोताने खबर पडे छे. ‘अमारी
मुक्ति कोण जाणे क्यारे