: ४८: आत्मधर्म: १११
एवो मारा ज्ञाननो स्वभाव नथी. बधाय ज्ञेयोना ज्ञानपणे परिणमवा छतां ते ज्ञेयोथी जुदो ने जुदो रहे–एवो मारो
स्वभाव छे.–आम जो पोताना ज्ञानस्वभावनी प्रतीत करे तो सम्यग्दर्शन थाय अने भवसमुद्रथी ते जीव तरी जाय.
आत्मानो जाणवानो स्वभाव छे तो ते कोने न जाणे? जेनो जाणवानो स्वभाव होय ते पूरुं ज जाणे,
तेना ज्ञानसामर्थ्यमां मर्यादा न होय. अधूरुं जाणे तो तेना परिणमननी कचाश छे, पण स्वभावसामर्थ्यमां
कचाश नथी. आ वात साधक जीवने माटे छे केम के नयो साधकने ज होय छे. पोतानी पर्यायमां कचाश होवा
छतां साधक जीव अंतर्मुखद्रष्टि वडे पोताना परिपूर्ण स्वभावने प्रतीतमां ल्ये छे.
आत्मानो स्वभाव बधाने जाणवानो छे, पण कोई परने पोतानुं करे एवो तेनो स्वभाव नथी;
जगतमां नरक वगेरे बीजा जीवोना दुःखनी तेने खबर पडे पण तेना ज्ञान भेगुं कांई ते जीवोना दुःखनुं वेदन
पोताने थतुं नथी. जेम कोईने वींछी करडयो होय त्यां तेने केवुं दुःख थाय छे ते बीजा माणसो जाणे छे, पण ते
जोनारा माणसोने कांई तेवा दुःखनुं वेदन थतुं नथी; तेम बधा पदार्थोने जाणवामां क्यांय राग–द्वेष करवानुं
आत्मानुं स्वरूप नथी.
अज्ञानी माने छे के मारे अमुक वस्तु वगर चालतुं नथी; पण ज्ञानी तेने समजावे छे के अरे भाई! तुं
तो ज्ञान छो, तें तारा ज्ञान सिवायना परपदार्थो विना ज आनादिथी चलाव्युं छे; बधा आत्माने पर वस्तु
विना ज चाली रह्युं छे, पण ज्ञान वगर एक क्षण पण चालतुं नथी. जो ज्ञान न होय तो आत्मानो ज अभाव
थई जाय. पर्यायमां अल्प राग–द्वेष थता होवा छतां ‘हुं तो ज्ञान छुं’ –एम जेणे नक्की कर्युं ते जीव आराधक
थयो, हवे ज्ञानमां एकाग्रताना जोरे वच्चेथी बाधकभाव तो नीकळी जवानो छे ने ज्ञान पूरुं खीली जवानुं छे.
अज्ञानी लोको तो बहारमां ज ‘मारे आ खपे ने आ न खपे’–एम परद्रव्यना अभिमानमां रोकाई
गया छे, पण अंतरमां ‘हुं ज्ञान छुं’ एनी तेने खबर नथी. ज्ञानी तो जाणे छे के हुं ज्ञानस्वभाव छुं, मारे ज्ञान
करवा माटे ज्ञेय तरीके बधा पदार्थो खपे छे, पण कोई पण पर ज्ञेय मारामां खपतुं नथी; मारा ज्ञानसामर्थ्यमां
बधाय पदार्थो ज्ञेय तरीके भले जणाय, पण कोई पण परज्ञेयने मारापणे हुं स्वीकारतो नथी. अरे जीव!
एकवार प्रतीत तो कर के मारो ज्ञानस्वभाव छे, मारामां बधाने जाणी लेवानुं सामर्थ्य छे, पर ज्ञेयोना
अवलंबन वगर मारा स्वभावना अवलंबनथी ज समस्त लोकालोकनो हुं ज्ञायक छुं.–आवा ज्ञायकपणानी
प्रतीत करे तो आखा जगतथी उदासीनता थईने ज्ञान अंतरमां ठरी जाय.
लोकालोकने लईने जीवने तेनुं ज्ञान थाय छे एम नथी, जो लोकालोकने लीधे तेनुं ज्ञान थतुं होय तो
बधा जीवोने लोकालोकनुं ज्ञान थई जवुं जोईए केम के लोकालोक तो सदाय छे; माटे ज्ञानस्वभावना सामर्थ्यथी
ज ज्ञान थाय छे. आवा निजस्वभावनी प्रतीत करीने ते ज्ञान स्वभावनी एकनी भावनामां ज व्रतादि बधुं
समाई जाय छे. बार भावना ते व्यवहारथी छे, खरेखर बारे भावनानो आधार तो आत्मा छे; आत्माना
आश्रये साची बार भावना छे, बार प्रकारना भेद उपरना लक्षे तो विकल्प थाय छे. माटे कोई पण नयथी
आत्माना धर्मनुं वर्णन कर्युं होय, पण ते धर्मद्वारा धर्मी एवा अखंड आत्माने द्रष्टिमां लईने तेनुं अवलंबन
करवुं ए ज तात्पर्य छे. अहीं २४मा ज्ञानज्ञेय–अद्वैतनयथी आत्मानुं वर्णन पूरुं थयुं
(२५) ज्ञानज्ञेय–द्वैतनये आत्मानुं वर्णन
आत्मद्रव्य ज्ञानज्ञेय द्वैत नये, परनां प्रतिबिंबोथी संपृक्त दर्पणनी माफक, अनेक छे. जेमां अनेक चीजोनुं
प्रतिबिंब झळकतुं होय एवो अरीसो पोते अनेकरूप थयो छे तेम ज्ञानमां अनेक प्रकारना पर ज्ञेयो झळके छे–
जणाय छे, त्यां ज्ञान पोताना स्वभावथी ज एवी अनेकतारूप परिणम्युं छे, परज्ञेयो कांई ज्ञानमां नथी पेठा.
आखो भगवान आत्मा अनंत धर्मनो घणी ते प्रमाण–ज्ञाननो विषय छे; ने ते प्रमाणज्ञानना किरण वडे
तेनो एकेक धर्म जणाय छे. प्रमाणपूर्वक ज नय होय छे. तेमांथी अहीं २५मा नयथी आत्मानुं वर्णन चाले छे.
पहेलांं ज्ञानज्ञेयना अद्वैतनयथी आत्माने एक कह्यो, तेमां पण आत्मा परथी तो जुदो ज छे, ने अहीं ज्ञान–
ज्ञेयना द्वैतनयथी आत्माने अनेक कह्यो, तेमां पण परथी तो जुदो ज छे. एकपणे तेम ज अनेकपणे भासे एवो
आत्मानो ज स्वभाव छे. आत्मामां ते बंने धर्मो एकसाथे ज छे. आत्मानुं एकपणुं जोनार नय हो के अनेकपणुं
जोनार नय हो–ते बधा नयो आत्माने ज ते ते धर्मनी