परस्पर विरोध छे, पण प्रमाणज्ञान ते विरोधने टाळीने आत्मस्वभावने सिद्ध करे छे.
अनेकतारूपे परिणमे छे, तेथी आत्मामां अनेकपणांरूप धर्म पण छे. ज्ञेयोनुं अनेकपणुं ज्ञेयोमां छे, तेमनाथी तो
आत्मा जुदो छे, पण अर्हंत–सिद्ध, जड–चेतन वगेरे अनेक ज्ञेय पदार्थोने जाणतां ज्ञान पोते पोताना स्वभावथी
ज अनेकतारूपे थाय छे, ते अनेकता कांई परज्ञेयोने लीधे थती नथी. जेम अरीसामां अनेक पदार्थोनुं प्रतिबिंब
देखाय छे ते अरीसानी ज अवस्था छे, अरीसो पोताना स्वच्छ स्वभावथी तेवी ज अनेकाकाररूप पर्याये
परिणम्यो छे, तेम ज्ञान पण पोताना स्व–परप्रकाशक स्वभावने लीधे अनेक ज्ञेयाकारोरूप परिणमे छे, ते
ज्ञाननी पोतानी अवस्था छे, परज्ञेयोनो आकार ज्ञानमां आवी जतो नथी.
तेमां एकाग्रता वडे मुक्ति थाय.
उत्तर:– अरे भाई! आत्मानुं स्वरूप ज आवुं छे, तेथी आत्माना आ धर्मोने जाणवा ते कांई उपाधि के
निरुपाधिकपणुं थाय छे. सर्वज्ञ भगवानना ज्ञानमां लोकालोकनी अनेकता जणाती होवा छतां तेमना ज्ञानमां
उपाधि नथी, विकल्प नथी पण वीतरागता छे. अनेकताने पण जाणवानो ज्ञाननो स्वभाव छे, ज्ञानमां अनेकता
जणाय ते कांई रागनुं कारण नथी. ज्ञाननो द्वैतस्वभाव पोतानो छे, ते लोकालोकने लीधे नथी. ज्ञानमां
लोकालोकनो जे प्रतिभास थाय छे ते कांई लोकालोकनी अवस्था नथी पण ते तो ज्ञान पोते ज पोताना तेवा
धर्मरूपे परिणम्युं छे, लोकालोक तो ज्ञाननी बहार छे.–आम द्वैतनयथी अनेकाकार ज्ञानस्वभावी आत्माने
जाणवो ते सम्यग्ज्ञान अने वीतरागतानुं कारण छे. जेम जेम विशेष विशेष पडखांथी आत्मस्वभावनो निर्णय
करे तेम तेम जीवने ज्ञाननी विशुद्धता वधती जाय छे अने राग तूटतो जाय छे. वस्तुना स्वरूपनुं साचुं ज्ञान कदी
पण उपाधिनुं के रागनुं कारण थाय नहि.
अनेकपणे थवुं ते पण आत्मानो ज धर्म छे. आत्मामां ते बंने धर्मो एकसाथे रहेला छे, ने एवा अनंत धर्मोनो
पिंड चैतन्यमूर्ति आत्मा छे.
स्वभावथी द्वैतपणुं–अनेकपणुं भासवा छतां ते उपाधि नथी तेम ज रागनुं कारण नथी. आ बधा धर्मो
आत्माना छे, ते धर्मोवडे आत्मानुं ज्ञान थतां प्रमाण–सम्यग्ज्ञान थाय छे, ते ज्ञान रागनुं कारण नथी पण
वीतरागतानुं ज कारण छे.
ज आत्मानुं साचुं थान थतुं नथी. साधक धर्मात्मा अनंता धर्मोने भिन्नभिन्नरूपे भले न जाणी शके, परंतु
पोताना ज्ञानमां आवी शके एवा प्रयोजनभूत धर्मो वडे ते अनंतधर्मस्वरूप आत्माने स्वानुभवपूर्वक जाणे छे,
आत्माना अनंत धर्मोनी तेने निःशंक प्रतीति छे, तेमां शंका पडती नथी.