Atmadharma magazine - Ank 111
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 13 of 21

background image
: पोष: २४७९ : ५१ :
पणुं नथी. जो आत्मामां सर्वज्ञ जेटली ज परिपूर्ण ताकात न होय तो सर्वज्ञता क्यांथी आवशे? वर्तमान
पर्यायमां हीनता अने विकारीभाव थाय ते दोष छे, पण चैतन्यना ज्ञानसामर्थ्यमां पूर्वनो विकार जणाय ते कांई
दोष नथी, ते तो ज्ञाननुं ते प्रकारनुं सामर्थ्य छे. चैतन्यने पापथी भिन्न राखीने पापनुं ज्ञान करे–ते तो चैतन्यनी
स्वच्छतानो महिमा छे. ज्ञान आंधळुं नथी के विकारने न जाणे. विकारने न करे एवो ज्ञाननो स्वभाव छे, पण
पूर्वे जे विकार थई गयो तेने न जाणे–एवो कांई ज्ञाननो स्वभाव नथी. कोई जीव विकारनुं ज्ञान काढी नांखवा
मांगे तो तेने ज्ञानस्वभावनी ज खबर नथी. अरे भाई! विकार जणाय छे ते तो तारा ज्ञाननुं सामर्थ्य छे, माटे
ते ज्ञानसामर्थ्यने जाण तो तेना अवलंबने विकार टळी जशे. आत्मानो विकास थतां विकार टळी जशे पण
विकारनुं ज्ञान नहि टळे. बधानुं ज्ञान करीने ज्ञानपणे रहेवुं ने विकारपणे न थवुं–ते ज आत्मानो स्वभाव छे.
पोताना ज्ञानमां अनेक पर पदार्थोने जाणतां ज्ञाननी अनेकता थाय छे, पण ते ज्ञान कांई पररूपे थई जतुं
नथी.–आम पोताना ज्ञाननी प्रतीत करवी जोईए.
साकर गळी छे, अफीण कडवुं छे, लींबुने देखतां जीभमां पाणी आवी जाय ने आंबली देखतां मोढामां
अमी झरे–ए प्रमाणे बधा पदार्थोनी प्रतीत करे छे, तथा आंबली मोढामां लीधा विना मात्र तेने देखतां मोढामां
अमी झरे छे–एम माने छे, तो हे भाई! परज्ञेयो ज्ञानमां प्रवेश्या विना चौद ब्रह्मांडना समस्त ज्ञेय पदार्थोने
देखतां आत्मामां तेनुं ज्ञान थाय ने अपूर्व आनंदनो रस झरे–एम तारा ज्ञानस्वभावनी प्रतीत केम नथी
करतो? ज्ञानस्वभावने चूकीने परज्ञेयोमां मारापणुं मानीने तेमां राग–द्वेष करीने अटक्यो त्यारे पूरुं ज्ञान न
थयुं ने आत्मामां आनंदनो रस न झर्यो. पण बधा ज्ञेयोथी भिन्न पोताना ज्ञानस्वभावने ओळखतां जेम छे
तेम जाणनार रह्यो ने क्यांय राग–द्वेषमां न अटक्यो त्यां पूर्ण ज्ञान थयुं ने आत्मामां अपूर्व अमृत झर्युं.
ज्ञानस्वभावनी प्रतीत सिवाय बीजा कोई उपायथी आत्माना सहज आनंदरूपी अमृतनो अनुभव थाय नहि.
–अहीं २५ मा ज्ञानज्ञेय द्वैतनयथी आत्मानुं वर्णन पूरुं थयुं. हवे नियतिनय तथा अनियतिनयथी
आत्म–द्रव्यनुं वर्णन करशे.
सुखी थवुं होय तेणे शुं करवुं?
जीव ज्ञानस्वभावी छे, ते सुखी थवा मांगे छे; वर्तमानमां
तेने अल्पज्ञता अने दुःख छे तेने टाळीने ते सर्वज्ञता अने सुख
प्रगट करवा मांगे छे. तो सर्वज्ञता एटले के एक समयमां परिपूर्ण
जाणे एवुं ज्ञान; ते सर्वज्ञता प्रगटवानी ताकात क्यां छे? शरीरनी
क्रियामां, संयोगोमां के निमित्तमां सर्वज्ञता प्रगटवानी ताकात नथी,
रागमां पण ते ताकात नथी अने वर्तमान अल्पज्ञ पर्याय छे
तेनामांथी पण सर्वज्ञता प्रगटे एवी तेनी ताकात नथी. आत्माना
धु्रव ज्ञानस्वभावमां सर्वज्ञता प्रगटवानी ताकात सदाय भरी छे. ते
ज्ञानस्वभावनो विश्वास करीने तेनुं अवलंबन लेतां सर्वज्ञता अने
पूर्ण आनंद प्रगट थाय छे. एटले जेणे सुखी थवुं होय तेणे पोताना
ज्ञानस्वभावनो निर्णय करवानुं आव्युं.
–प्रवचनमांथी.