: ५२: आत्मधर्म: १११
अनेकान्तमूर्ति भगवान आत्मानी
केटलीक शक्तिओ
[१३]
असंकुचितविकासत्व शक्ति
क्षेत्र अने काळथी अमर्यादित एवा चिद्दविलास स्वरूप असंकुचितविकासत्व नामनी शक्ति छे, आ शक्ति
पण आत्माना ज्ञानमात्रभावमां भेगी ज परिणमे छे. संकोच वगरनो विकास थाय–एवो चैतन्यनो विलास छे.
अमुक ज क्षेत्र अने अमुक ज काळने जाणे ने पछी वधारे न जाणी शके–एवी कोई मर्यादा चैतन्यना विकासमां
नथी. चैतन्यनो एटलो विकास थाय के तेमां जराय संकोच न रहे, अमर्यादित काळ अने अमर्यादित क्षेत्रने पण ते
जाणी ल्ये–एवा असंकुचितविकासरूप चैतन्यस्वभाव छे. आत्मामां अनादिअनंत एवो स्वभाव छे के तेना
चैतन्यविकासमां मर्यादा नथी; अमुक क्षेत्र अने काळने जाण्या पछी हवे विकास बस थाव–एवी हद तेनामां नथी.
आत्मा पोते भले असंख्यप्रदेशी छे पण तेथी कांई तेनी चैतन्यशक्तिनो विलास मर्यादित थई गयो नथी,
असंख्यप्रदेशी होवा छतां अनंत–अनंत अमर्यादित क्षेत्रने जाणे–एवी तेनी ताकात छे. क्षेत्रथी अनंतप्रदेशी के
सर्वव्यापक होय तो ज तेनी अनंत शक्ति कहेवाय–एम नथी. पोते अल्पक्षेत्रमां रहीने सर्वक्षेत्रने जाणी ले छे
तथा एक समयमां त्रणकाळने जाणी ले छे, जाणवामां कांई संकोच थतो नथी–आवी असंकुचित विकासरूप शक्ति
आत्मामां सदाय छे. लोकालोकमां जेटला ज्ञेयो छे तेना करतां अनंतगुणा होत तो तेने पण जाणी लेवानी ज्ञाननी
बेहद ताकात छे. जेनो स्वभाव ज जाणवानो छे तेने जाणवामां क्षेत्रनी के काळनी हद न होय.
आत्मा जाणे छे पोताना असंख्यप्रदेशमां,–पण जाणे छे अनंत क्षेत्रने! तेम ज ते जाणे छे एक ज समयमां,
पण अनंत अमर्यादित काळने जाणे छे. जुओ आ चैतन्यनो विलास. आ चैतन्यविलासने कोई केदमां पूरी शके
नहि; जेम कोई माणसने जेलमां पूर्यो होय, पण ते माणस जेलनी ओरडीमां बेठो बेठो पोताना ज्ञानमां बहारना
पदार्थोने जाणे–तो शुं तेना ज्ञानने कोई रोकी शके तेम छे? तने जेलमां पूर्यो छे माटे जेलनी बहारनुं ज्ञान तने नहि
करवा दउं–एम शुं कोई तेने रोकी शके छे? तेम आत्माना बेहद ज्ञानविलासने कोई रोकी शकतुं नथी, तेने केदमां
पूरी शकातो नथी. अमुक क्षेत्र तथा अमुक काळने जाणे एटलो ज शक्तिनो विकास थाय ने पछी वधारे विकास न
थई शके–एवो मर्यादित स्वभाव नथी, पण अमर्यादितपणे सर्व क्षेत्र अने सर्व काळने जाणे एवो संकोचरहित
विकास थवानो आत्मानो स्वभाव छे. अल्पज्ञता ने अल्पवीर्य वगेरे संकोचपणे रहेवानो आत्मानो स्वभाव नथी,
शक्तिनो परिमित विकास रहे–एवो तेनो स्वभाव नथी, पण असंख्यप्रदेशमां ने एक समयमां पूरुं अमर्यादित
केवळज्ञान तथा बेहद वीर्य, आनंद वगेरे विकास पामे–एवो अमर्यादित आत्मस्वभाव छे.
जुओ, आवी अमर्यादित शक्तिनो पूर्ण विकास कोना आश्रये प्रगटे? निमित्तनो, विकारनो के मर्यादित
पर्यायनो आश्रय करतां अमर्यादित सामर्थ्य प्रगटतुं नथी, पण ऊलटुं पर्यायनुं सामर्थ्य संकोचाई जाय छे;
आत्मानो त्रिकाळ अमर्यादित स्वभाव छे तेनो आश्रय करीने परिणमतां पर्यायमां पण अमर्यादित
चैतन्यशक्ति व्यक्तपणे ऊछळे छे, प्रगट थाय छे. प्रथम आवा निजस्वभावनी प्रतीत करवी ते धर्मनी शरूआत
छे. वर्तमान पर्यायमां अल्प विकास होवा छतां द्रव्यसन्मुखद्रष्टिथी पोताना पूर्ण विकास थवारूप
स्वभावसामर्थ्यनी प्रतीत करवी ते सम्यग्दर्शन छे. अने पोताना पूर्ण सामर्थ्यनी प्रतीत न करतां, पर्यायना
अल्प विकास जेटलो ज पोताने मानीने त्यां अटकी जवुं ते पर्यायमूढतानुं मिथ्यात्व छे.
अज्ञानी जीवो आत्माने नमालो, तुच्छ अने सामर्थ्यहीन मानी रह्या छे, तेने आचार्यदेव आत्मानो
बेहद सामर्थ्यरूप स्वभाव बतावे छे के जो भाई! आ अल्प सामर्थ्य जेटलो ज संकुचित तारो आत्मा नथी परंतु
संकोच वगरनो बेहद विकास थाय–एवुं तारा आत्मानुं अचिंत्य सामर्थ्य छे. आत्माना प्रदेशो तो असंख्य छे
एटले तेनुं स्वक्षेत्र मर्यादित छे, परंतु मर्यादित क्षेत्रवाळो होवा छतां तेनां ज्ञानमां क्षेत्रने जाणवानी एवी कोई
मर्यादा नथी के अमुक ज क्षेत्रनुं जाणे! तेना चैतन्य–सामर्थ्यनो एवो अमर्यादित विलास छे के गमे तेटला क्षेत्रनुं
न गमे तेटला काळनुं जाणवामां तेने क्यांय संकोच नथी, मर्यादा नथी, के थाक लागतो नथी. घणुं जाण्युं माटे
ज्ञान थाकी गयुं अथवा ज्ञानमां संकडाश पडी–एवुं कदी बनतुं नथी; आत्मानो चैतन्यस्वभाव संकोच वगरनो
छे. पोताना चैतन्यविकासथी लीलामात्रमां त्रणकाळ–त्रणलोकने जाणी ल्ये अने साथे बेहद आनंदने