Atmadharma magazine - Ank 111
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

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: पोष : २४७९ : ५३ :
भोगवे–आवी अद्भुत चैतन्यविलासनी मोज छे. अज्ञानी मूढ जीवो बहारमां विषय–कषायमां मोज मानी रह्या
छे पण ते तो आकुळता छे–दुःख छे, तेने पोतानी अतीन्द्रिय चैतन्यमोजनी खबर नथी तेथी ज ते बहारना
ईन्द्रिय–विषयोमां मोज कल्पे छे. ज्ञानी तो जाणे छे–के मारा चैतन्यना विलासमां ज मारी मोज छे; ते ज्ञानी
बहारना ईन्द्रियविषयोमां स्वप्ने पण मजा मानता नथी.
चैतन्यनो विलास केवो छे? के संकोच विनानो अमर्यादित तेनो विकास छे, अमुक ज जाणे–एवी तेनी
मर्यादा नथी; तेम ज चैतन्यनो जे पूर्ण विकास प्रगट्यो ते फरीने कदी संकोच पामतो नथी. आत्मानी स्वभाव
शक्तिने काळ के क्षेत्रनी मर्यादा नथी. पंचमकाळ छे अने भरतक्षेत्र छे माटे आत्मानी स्वभावशक्तिमां कांई
संकोच थई गयो–एम नथी; स्वभावसामर्थ्य त्रणेकाळे एकरूप छे. चैतन्यना विलासने कोई क्षेत्र के काळनी
मर्यादामां बांधी शकाय नहि, जे क्षेत्र–काळनी मर्यादा बांधे छे ते चैतन्यतत्त्वने केदमां बांधे छे; चैतन्यतत्त्वनो
अमर्यादित विलासरूप असंकुचितविकासस्वभाव छे तेनो तो कांई नाश थतो नथी, ते तो अत्यारे पण दरेक
आत्मामां छे, परंतु तेने जे जाणतो नथी तेने संसारपरिभ्रमण थाय छे.
अहीं आ शक्तिओनुं वर्णन करीने एम बताववुं छे के ज्ञानमात्र आत्मामां आ बधी शक्तिओ पण
भेगी ज रहेली छे तेथी आत्माने ‘ज्ञानमात्र’ कहेतां एकांत थई जतो नथी पण अनेकांत स्वयमेव प्रकाशे छे;
एवा अनेकान्तमूर्ति आत्माने ओळखतां तेना आश्रये मोक्षमार्ग प्रगटे छे एने तेनी बधी शक्तिओ
निर्मळपणे परिणमवा मांडे छे. आ बधी शक्तिओ वडे ज्ञायकस्वरूप आत्मा ज लक्षित थाय छे, एनाथी भिन्न
बीजुं कांई लक्षित थतुं नथी; केम के अनंत शक्तिओनो पिंड आत्मा पोते ज छे. आवा अनेकान्तस्वरूप
आत्माने जाणवो ते ज जिननीति छे. जुओ, आ जैनधर्मनी लोकोत्तर नीति! आगळ २६५ मा कळशमां कहेशे
के आवी अनेकान्तात्मक वस्तुतत्त्वनी व्यवस्थितिने अनेकान्त साथे मेळवाळी द्रष्टि वडे स्वयमेव देखता थका,
स्याद्वादनी अत्यन्त शुद्धिने जाणीने, जिननीतिने एटले के जिनेश्वरदेवना मार्गने नहि उल्लंघता थका,
सत्पुरुषो ज्ञानस्वरूप थाय छे.
‘ज्ञानस्वरूप’ कहीने आत्माने ओळखाव्यो छे, परंतु आत्मामां कांई एकलो ज्ञानगुण ज नथी पण ज्ञान
साथे बीजा अनंत गुणो छे. ते बधा गुणो सहवर्ती छे अने तेनी पर्यायो क्रमेक्रमे एक पछी एक थाय छे तेथी
पर्यायो क्रमवर्ती छे. पर्याय तो नवी थती जाय छे ने बीजा समये नाश पामी जाय छे, गुणो नवा थता नथी तेम ज
कदी नाश पण थता नथी. द्रव्य त्रिकाळ अनंतगुणनो पिंड छे. आवो आत्मस्वभाव समजतां परथी उपेक्षा थईने
पोताना स्वभावनो आश्रय थाय छे तेनुं नाम धर्म छे. आत्मानी एकेय शक्ति परमां नथी, तेथी परनी सामे जोये
आत्मा जाणातो नथी ने तेना गुणो प्रगटता नथी. फक्त क्षणिक पर्याय उपर जुए तो पण अनंतशक्तिवाळो
आत्मा जणातो नथी. ज्ञानादि अनंतगुणनो जे पिंड छे तेने अभेदपणे लक्षमां ल्ये तो आत्मा यथार्थस्वरूपे जणाय.
हुं शरीर वगेरे परनां काम करुं–एम जे माने तेनी पर्याय तो परने जोवामां ज अटकी गई, परथी भिन्न
पोताना आत्मा सामे ते जुए नहि एटले तेनुं मिथ्यात्व टळे नहि अने तेने धर्मलाभ थाय नहि. आत्माना
गुणो वडे ज्यारे परथी भिन्नपणुं जाण्युं अने पर तरफनुं वलण छोडीने आत्मा तरफ वलण कर्युं त्यारे, पहेलांं
परलक्षे जे ज्ञान–दर्शन–आनंद–वीर्य वगेरे गुणो संकुचित हता तेमनो हवे पर्यायमां विकास प्रगट्यो. स्वभावमां
तो विकास थवानुं सामर्थ्य हतुं ज, ते हवे पर्यायमां प्रगट्युं. आत्मामां आवो असंकुचितविकासधर्म छे एटले
तेना बधा गुणोमां संकोच वगरनो अमर्यादित विकास थाय–एवो तेनो स्वभाव छे.
हुं परनुं कार्य करुं ने पर मारुं कार्य करे, तथा पुण्य–पाप ते ज मारुं कर्तव्य छे–एम जीव मानतो त्यारे
पराधीन ऊंधी द्रष्टिने लीधे तेना ज्ञान–दर्शन–सुख–वीर्य वगेरेनी पर्यायो संकोचरूप हती, तेनो विकास मर्यादित
हतो; हवे अनंतशक्तिरूप निजस्वभावनी प्रतीत करीने तेना आश्रये लीन थतां ज्ञानादिनो अमर्यादित विकास
खीली जाय छे. आत्मानुं ज्ञान सर्वथा बीडाई जईने आत्मा जड थई जाय–एम कदी बनतुं नथी; निगोदनी
हलकामां हलकी अवस्थामां पण ज्ञाननो अमुक क्षयोपशमभाव तो होय छे एटले एटलो अल्पविकास तो त्यां
हतो, पण ते संकोचरूप हतो, मर्यादित हतो,–आत्मानो स्वभाव एवो नथी, संकोच वगरनो परिपूर्ण विकास
थाय–एवो आत्मानो स्वभाव छे. हजी पर्यायमां पूर्णता प्रगटी गया पहेलांं आवा परिपूर्ण स्वभावने प्रतीतमां
लेवानी आ वात छे,