Atmadharma magazine - Ank 111
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

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: ५४ : आत्मधर्म : १११
एटले साधकदशानी आ वात छे. पहेलांं पोताना पूर्ण स्वभावने ओळखीने प्रतीतमां पण न ल्ये तो तेने
पर्यायमां पूर्णता क्यांथी आवशे? कोना आधारे ते पोतानी पूर्णताने साधशे! परना आधारे लाभ मानशे तो
तो ऊलटुं मिथ्यात्वनुं पोषण थशे. माटे आचार्यप्रभु कहे छे के बीजा बधा साथेना संबंधने भूली जा अने
एकला तारा आत्माने तेना अनंतगुणो वडे लक्षमां ले.–आ ज साधक थईने सिद्ध थवानो रस्तो छे.
बीजा पदार्थोने एकवार लक्षमांथी काढी नांख अने तारा आत्माने जुदो लक्षमां ले. जो, आ आत्मा छे
ने! –‘हा.’ तेनामां ज्ञान वगेरे गुणो छे ने! –‘हा.’ हवे ते आत्मा पोताना ज्ञानादि गुणोने परथी पृथक् राखे
छे के पर साथे एकमेक थई जाय छे? आत्माना गुणो परथी तो जुदा ज छे. जेम के आ सुखडनी लाकडी छे, ते
लाकडीना सुगंध वगेरे गुणो हाथथी जुदा छे के एकमेक छे? जुदा छे. जेम सुखडनी लाकडीना गुणो हाथथी
एकमेक नथी पण जुदा छे तेम आत्माना ज्ञानादि गुणो छे ते कोई बीजानी साथे एकमेक नथी पण जुदा ज छे.
जो पोताना जुदा गुणो न होय तो पदार्थ ज जुदो सिद्ध न थाय. आत्माना गुणो परथी पृथक् अने आत्मा साथे
एकमेक छे; आवा पोताना गुणोथी आत्मा ओळखाय छे. तेथी आत्मानी ओळखाण कराववा माटे तेना गुणो
कया कया छे तेनुं आ वर्णन चाले छे.
आत्मानुं ज्ञान प्रत्यक्ष थईने परिपूर्ण विकसित थाय–एवो तेनो स्वभाव छे; पर्यायमां ते पूर्ण विकास
क्यारे प्रगट थाय? के त्रिकाळी प्रत्यक्ष परिपूर्ण स्वभावनो आश्रय करीने परिणमे त्यारे पर्यायमां पूर्ण विकास
थाय. ए सिवाय विकारनो आश्रय करीने लाभ माने तो पर्यायनो विकास न थाय पण विकार थाय. अने जडनुं
हुं करुं एम मानीने जडना आश्रयमां रोकाय तो आत्मा जड तो न थई जाय पण तेनी पर्याय संकोचरूप रहे,
पर्यायनो जे विकास थवो जोईए ते न थाय. परना लक्षे के विकारना लक्षे आत्मानी पर्यायमां संकोच थाय छे ने
विकास थतो नथी एटले के धर्म थतो नथी. जीवनी पर्यायमां अनादिथी संकोच छे, ते संकोच टळीने संकोच
वगरनो विकास केम प्रगटे–ते अहीं आचार्यदेव बतावे छे. आत्मामां ज्ञानादिनो अमर्यादित विकास थवानी
शक्ति त्रिकाळ छे, तेनी प्रतीत करतां ते प्रतीत करनारी पर्याय पण विकास पामी जाय छे. अहीं तो आत्मा
त्रिकाळ संकोचरहित विकासरूप चैतन्यविलासथी परिपूर्ण ज छे, पर्यायमां विकास न हतो ने प्रगट थयो–एवी
पर्यायद्रष्टिनी अहीं प्रधानता नथी.
मारी पर्यायो मारा द्रव्यमांथी आवे छे ने द्रव्य तो परिपूर्ण छे–आम स्वसन्मुख थईने द्रव्यनी प्रतीत करे
तो तेना आश्रये अमर्यादितपणे चैतन्यनो विकास थईने केवळज्ञान थाय. आत्माना स्वभावमां अमर्यादित
शक्ति होवा छतां तेनी पर्यायमां अल्पता केम थई? जो स्वभावनो आश्रय करे तो तो स्वभाव जेवी ज पर्याय
थाय, पण स्वभावनो आश्रय छोडीने पर्याय पराश्रयमां अटकी तेथी तेमां अल्पता थई. ज्ञान पर तरफ वळ्‌युं
तेथी ते अल्प थयुं, श्रद्धाए परमां एकत्व मानतां ते मिथ्या थई, चारित्रनी स्थिति परमां थतां आनंदने बदले
आकुळतानुं वेदन थयुं, वीर्य पण पर तरफना वलणथी अल्प थयुं. ए रीते पर तरफना वलणमां अटकवाथी
पर्यायमां अल्पता थई, संकोच थयो, ते अल्पता अने संकोच टळीने पूर्णतानो विकास केम थाय तेनी आ वात छे.
आत्मामां जीवनशक्ति छे तेने भूलीने शरीर अने अन्न वगेरेथी पोतानुं जीवन मानतो, त्यारे आत्मानी
शक्ति संकोचायेली हती, तेने बदले हवे जीवत्व शक्तिनुं भान कर्युं के हुं तो मारा चैतन्यप्राणथी ज त्रिकाळ
जीवनारो छुं, एटले स्वाश्रये साचा चैतन्यजीवननो विकास थयो.
पहेलांं पोतानी स्वाधीन शक्तिने भूलीने चेतना तथा दर्शन–ज्ञानने पराश्रये मानतो, त्यारे तेनी पर्याय
संकोचरूप हती, हवे ज्यां स्वाधीन शक्तिनुं भान थयुं त्यां तेना आश्रये चेतना तथा दर्शन–ज्ञाननो बेहद
विकास प्रगटी गयो.
ए ज प्रमाणे पहेलांं पोतानी स्वाधीन सुखशक्तिने भूलीने परमां सुख मानतो त्यारे सुखने बदले
आकुळतानुं वेदन करतो हतो, तेने बदले हवे सुखशक्ति तो आत्मामां छे एवुं भान थतां आत्माना आश्रये
सुखनो विकास थयो.
पहेलांं परमां सुख मानतो त्यारे आत्मानुं वीर्य पण परमां रोकातुं एटले संकोचरूप हतुं, तेने बदले हवे
ते वीर्य स्वभाव तरफ वळतां स्वाश्रये तेनो विकास खील्यो.
वळी, पहेलांं पोतानी प्रभुताने चूकीने परने प्रभुता आपतो तेथी पर्यायमां प्रभुता प्रगटी न हती, तेने बदले