पर्यायमां पूर्णता क्यांथी आवशे? कोना आधारे ते पोतानी पूर्णताने साधशे! परना आधारे लाभ मानशे तो
तो ऊलटुं मिथ्यात्वनुं पोषण थशे. माटे आचार्यप्रभु कहे छे के बीजा बधा साथेना संबंधने भूली जा अने
एकला तारा आत्माने तेना अनंतगुणो वडे लक्षमां ले.–आ ज साधक थईने सिद्ध थवानो रस्तो छे.
छे के पर साथे एकमेक थई जाय छे? आत्माना गुणो परथी तो जुदा ज छे. जेम के आ सुखडनी लाकडी छे, ते
लाकडीना सुगंध वगेरे गुणो हाथथी जुदा छे के एकमेक छे? जुदा छे. जेम सुखडनी लाकडीना गुणो हाथथी
एकमेक नथी पण जुदा छे तेम आत्माना ज्ञानादि गुणो छे ते कोई बीजानी साथे एकमेक नथी पण जुदा ज छे.
जो पोताना जुदा गुणो न होय तो पदार्थ ज जुदो सिद्ध न थाय. आत्माना गुणो परथी पृथक् अने आत्मा साथे
एकमेक छे; आवा पोताना गुणोथी आत्मा ओळखाय छे. तेथी आत्मानी ओळखाण कराववा माटे तेना गुणो
कया कया छे तेनुं आ वर्णन चाले छे.
थाय. ए सिवाय विकारनो आश्रय करीने लाभ माने तो पर्यायनो विकास न थाय पण विकार थाय. अने जडनुं
हुं करुं एम मानीने जडना आश्रयमां रोकाय तो आत्मा जड तो न थई जाय पण तेनी पर्याय संकोचरूप रहे,
पर्यायनो जे विकास थवो जोईए ते न थाय. परना लक्षे के विकारना लक्षे आत्मानी पर्यायमां संकोच थाय छे ने
विकास थतो नथी एटले के धर्म थतो नथी. जीवनी पर्यायमां अनादिथी संकोच छे, ते संकोच टळीने संकोच
वगरनो विकास केम प्रगटे–ते अहीं आचार्यदेव बतावे छे. आत्मामां ज्ञानादिनो अमर्यादित विकास थवानी
शक्ति त्रिकाळ छे, तेनी प्रतीत करतां ते प्रतीत करनारी पर्याय पण विकास पामी जाय छे. अहीं तो आत्मा
त्रिकाळ संकोचरहित विकासरूप चैतन्यविलासथी परिपूर्ण ज छे, पर्यायमां विकास न हतो ने प्रगट थयो–एवी
पर्यायद्रष्टिनी अहीं प्रधानता नथी.
शक्ति होवा छतां तेनी पर्यायमां अल्पता केम थई? जो स्वभावनो आश्रय करे तो तो स्वभाव जेवी ज पर्याय
थाय, पण स्वभावनो आश्रय छोडीने पर्याय पराश्रयमां अटकी तेथी तेमां अल्पता थई. ज्ञान पर तरफ वळ्युं
तेथी ते अल्प थयुं, श्रद्धाए परमां एकत्व मानतां ते मिथ्या थई, चारित्रनी स्थिति परमां थतां आनंदने बदले
आकुळतानुं वेदन थयुं, वीर्य पण पर तरफना वलणथी अल्प थयुं. ए रीते पर तरफना वलणमां अटकवाथी
पर्यायमां अल्पता थई, संकोच थयो, ते अल्पता अने संकोच टळीने पूर्णतानो विकास केम थाय तेनी आ वात छे.
जीवनारो छुं, एटले स्वाश्रये साचा चैतन्यजीवननो विकास थयो.
विकास प्रगटी गयो.
सुखनो विकास थयो.