छे एवुं भान थतां तेना आश्रये सर्वदर्शिता अने सर्वज्ञतानो अमर्यादित विकास खीली जाय छे.
वळी पहेलांं पोतानी प्रकाशशक्तिने भूलीने पोताना ज्ञानने पराश्रये ज मानतो अटले पोतानुं प्रत्यक्ष
प्रत्यक्ष स्वसंवेदन प्रकाशित थयुं.
करतां बधी शक्तिओना परिणमनमां अमर्यादित विकास खीली ऊठे छे. भले निगोदमां हो के पछी नवमी
ग्रैवेयकमां हो, पण जेने पोताना आत्मस्वभावनो आश्रय नथी ने पराश्रयनी रुचि छे ते जीवनुं परिणमन
पोताना आत्माने जाणीने तेना आश्रये परिणमे छे तेने पोतानी पर्यायमां ज्ञान वगेरेनो बेहद विकास खीली
जाय छे. जीव शुं करे? कां तो आत्माने भूली पराश्रयमां रोकाईने पोतानी पर्यायमां संकोच पामे, अने कां तो
आत्मानुं भान करीने तेमां एकाग्रता वडे पर्यायमां विकास पामे; आ बे सिवाय त्रीजुं कांई ते करी शकतो नथी,
एटले के पोताना ज परिणमनमां संकोच के विकास सिवाय परना परिणमनमां तो जीव कांई करी शकतो ज
नथी–ए नियम छे. अने पोताना परिणमनमां पण जे संकोच थाय ते खरेखर जीवनो मूळस्वभाव नथी, संकोच
वगरनो परिपूर्ण विकास थाय–एवो जीवनो स्वभाव छे. आवा स्वभावनुं जे भान करे तेने ते स्वभावना
आश्रये पर्यायनो विकास थतां थतां अमर्यादित चैतन्यविलास प्रगटी जाय छे.
उत्तर:– अरे भाई, खरेखर आत्मा शरीरमां रह्यो ज नथी, आत्मा तो पोतानी अनंत शक्तिओमां रह्यो छे.
प्रश्न:– पण व्यवहारथी तो शरीरमां रहेलो कहेवाय छे ने?
उत्तर:– भाषानी पद्धतिथी, आत्मा शरीरमां रह्यो कहेवाय छे परंतु भाषानी पद्धति जुदी छे ने
वस्तुस्वरूप मानी ल्ये तो ते जीव अज्ञानी छे. आत्मा शरीरमां रह्यो छे एम कहेवुं ते तो निमित्त अने संयोगनुं
कथन छे, पण वस्तुस्वरूप तेम नथी. आत्मानुं यथार्थस्वरूप शुं छे ते समज्या विना सम्यग्ज्ञान थाय नहि.
एवी जेनी मान्यता छे तेने पर्यायबुद्धि अने देहबुद्धि ऊभी ज छे, तेणे खरेखर आत्माने देहथी भिन्न जाण्यो ज
नथी. अनादिथी स्वभावने भूलीने पर्यायबुद्धि अने देहबुद्धिथी ज पर्यायमां संकोच रह्यो छे ने तेथी ज संसार
छे, एटले पर्यायबुद्धिथी ज संसार छे. देहना संबंध विनानो ने रागथी पण पार, पोतानी ज्ञानादि अनंत
शक्तिओथी परिपूर्ण–एवा स्वभावने जाणीने तेमां तन्मयता करतां पर्यायनो विकास थईने मुक्ति थई जाय छे,
ने संकोच तथा संसार टळी जाय छे. आत्मामां एवी त्रिकाळशक्ति ज छे के प्रतिबंध वगरनो अमर्यादित
चैतन्यविलास प्रगटे, आ शक्तिनुं नाम ‘असंकुचित–विकासत्व शक्ति’ छे.