Atmadharma magazine - Ank 111
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

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: पोष : २४७९ : ५५ :
हवे निजस्वभावनी स्वाधीन प्रभुतानुं भान थतां तेना आश्रये प्रभुता प्रगट थई.
पोतानी अनंत शक्तिओमां विभुत्व भूलीने आत्माने परमां व्यापक मानतो त्यारे तेनी शक्ति
संकोचायेली हती, पोतानी स्वतंत्र विभुतानुं भान थतां स्वाश्रये विभुत्वनो विकास थयो.
वळी सर्वदर्शित्व अने सर्वज्ञत्वशक्ति पोतामां छे तेने भूलीने अल्पज्ञता जेटलो मान्यो त्यारे दर्शन–
ज्ञाननुं परिणमन अल्प–मर्यादित–संकोचवाळुं हतुं, तेने बदले हवे आत्मा ज सर्वदर्शी अने सर्वज्ञ स्वभाववाळो
छे एवुं भान थतां तेना आश्रये सर्वदर्शिता अने सर्वज्ञतानो अमर्यादित विकास खीली जाय छे.
पोताना स्वच्छ उपयोगस्वभावने भूलीने पोताना उपयोगने मलिन–रागादिमय मानतो त्यारे तेना
उपयोगमां लोकालोक जणाता न हता, हवे आत्माना स्वच्छस्वभावनुं भान थतां तेना
आश्रये उपयोगनी एवी स्वच्छता खीली के तेमां लोढालोक जणाय छे.
वळी पहेलांं पोतानी प्रकाशशक्तिने भूलीने पोताना ज्ञानने पराश्रये ज मानतो अटले पोतानुं प्रत्यक्ष
स्वसंवेदन थतुं न हतुं. हवे पोतानी स्वाधीन प्रकाशशक्तिने जाणतां ज्ञान अंतर्मुख थईने स्वयंप्रकाशमान एवुं
प्रत्यक्ष स्वसंवेदन प्रकाशित थयुं.
आ रीते, अहीं आत्मानी जीवत्व आदि बार शक्तिओनुं वर्णन कर्युं ते प्रमाणे, आत्मानी शक्ति ज्यारे
पराश्रयमां रोकाय त्यारे तेना विकासनी मर्यादा रहे छे अर्थात् ते संकुचित रहे छे, ने आत्मस्वभावनो आश्रय
करतां बधी शक्तिओना परिणमनमां अमर्यादित विकास खीली ऊठे छे. भले निगोदमां हो के पछी नवमी
ग्रैवेयकमां हो, पण जेने पोताना आत्मस्वभावनो आश्रय नथी ने पराश्रयनी रुचि छे ते जीवनुं परिणमन
मर्यादित–संकुचित रहे छे, अमर्यादित विकास तेने थतो नथी. जे जीव अनंतशक्तिसंपन्न चैतन्यभगवान एवा
पोताना आत्माने जाणीने तेना आश्रये परिणमे छे तेने पोतानी पर्यायमां ज्ञान वगेरेनो बेहद विकास खीली
जाय छे. जीव शुं करे? कां तो आत्माने भूली पराश्रयमां रोकाईने पोतानी पर्यायमां संकोच पामे, अने कां तो
आत्मानुं भान करीने तेमां एकाग्रता वडे पर्यायमां विकास पामे; आ बे सिवाय त्रीजुं कांई ते करी शकतो नथी,
एटले के पोताना ज परिणमनमां संकोच के विकास सिवाय परना परिणमनमां तो जीव कांई करी शकतो ज
नथी–ए नियम छे. अने पोताना परिणमनमां पण जे संकोच थाय ते खरेखर जीवनो मूळस्वभाव नथी, संकोच
वगरनो परिपूर्ण विकास थाय–एवो जीवनो स्वभाव छे. आवा स्वभावनुं जे भान करे तेने ते स्वभावना
आश्रये पर्यायनो विकास थतां थतां अमर्यादित चैतन्यविलास प्रगटी जाय छे.
प्रश्न:– आत्मा शरीरमां रहे छतां तेनुं कांई न करे?
उत्तर:– अरे भाई, खरेखर आत्मा शरीरमां रह्यो ज नथी, आत्मा तो पोतानी अनंत शक्तिओमां रह्यो छे.
प्रश्न:– पण व्यवहारथी तो शरीरमां रहेलो कहेवाय छे ने?
उत्तर:– भाषानी पद्धतिथी, आत्मा शरीरमां रह्यो कहेवाय छे परंतु भाषानी पद्धति जुदी छे ने
समजणनी पद्धति जुदी छे. वस्तुस्वरूप शुं छे ते समजे नहि अने मात्र भाषाना शब्दोने ज पकडीने तेवुं
वस्तुस्वरूप मानी ल्ये तो ते जीव अज्ञानी छे. आत्मा शरीरमां रह्यो छे एम कहेवुं ते तो निमित्त अने संयोगनुं
कथन छे, पण वस्तुस्वरूप तेम नथी. आत्मानुं यथार्थस्वरूप शुं छे ते समज्या विना सम्यग्ज्ञान थाय नहि.
आत्मानुं परमार्थस्वरूप शुं छे ते समज्या वगर जीवने पर्यायबुद्धि अने देहबुद्धि मटे ज नहि. देहनी
क्रिया हुं करुं, देहनी क्रियाथी मने लाभ थाय, व्यवहारनो शुभराग करतां करतां तेनाथी मारुं कल्याण थई जाय–
एवी जेनी मान्यता छे तेने पर्यायबुद्धि अने देहबुद्धि ऊभी ज छे, तेणे खरेखर आत्माने देहथी भिन्न जाण्यो ज
नथी. अनादिथी स्वभावने भूलीने पर्यायबुद्धि अने देहबुद्धिथी ज पर्यायमां संकोच रह्यो छे ने तेथी ज संसार
छे, एटले पर्यायबुद्धिथी ज संसार छे. देहना संबंध विनानो ने रागथी पण पार, पोतानी ज्ञानादि अनंत
शक्तिओथी परिपूर्ण–एवा स्वभावने जाणीने तेमां तन्मयता करतां पर्यायनो विकास थईने मुक्ति थई जाय छे,
ने संकोच तथा संसार टळी जाय छे. आत्मामां एवी त्रिकाळशक्ति ज छे के प्रतिबंध वगरनो अमर्यादित
चैतन्यविलास प्रगटे, आ शक्तिनुं नाम ‘असंकुचित–विकासत्व शक्ति’ छे.
(चालु)