Atmadharma magazine - Ank 111
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

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जिनशासने खरेखर क्यारे जाण्युं कहेवाय?
जिनशासन एटले शुं अने जिनशासनने कोणे जाण्युं
कहेवाय ते वात समयसारनी पंदरमी गाथामां अद्भुत रीते
वर्णवी छे; तेमां रहेलुं जैनशासननुं अतिशय महत्वनुं रहस्य पू.
गुरुदेवश्रीए आ प्रवचनमां खुल्लुं कर्युं छे. दरेक जिज्ञासुओए तेम
ज विद्वानोए आ गाथानुं रहस्य खास विचारवायोग्य छे.


शुद्ध
आत्मा ते जिनशासन छे; एटले जे जीव पोताना शुद्ध आत्माने देखे छे ते समस्त जिनशासनने
देखे छे.–ए वात श्री आचार्यदेव समयसारनी १५मी गाथामां कहे छे–
अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, जे अविशेष देखे आत्मने,
ते द्रव्य तेम ज भाव जिनशासन सकल देखे खरे. १५.
जैनशासननो मर्म आचार्यदेवे आ गाथामां खुल्लो मूक्यो छे. जे आ अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, नियत,
अविशेष अने असंयुक्त एवा पांच भावोस्वरूप आत्मानी अनुभूति छे ते निश्चयथी समस्त जिनशासननी
अनुभूति छे; जेणे आवा शुद्ध आत्माने जाण्यो तेणे सर्व जिनशासनने जाण्युं. आखा जैनशासननो सार शुं?–के
पोताना शुद्ध आत्मानो अनुभव करवो ते; शुद्ध आत्माना अनुभवथी वीतरागता थाय छे अने ते ज जैनधर्म
छे, जेनाथी रागनी उत्पत्ति थाय ते जैनधर्म नथी. ‘हुं बंधनवाळो अशुद्ध छुं’–एम जे पर्यायद्रष्टिथी पोताना
आत्माने अशुद्ध ज देखे छे तेने रागनी उत्पत्ति थाय छे, अने राग ते जैनशासन नथी, तेथी जे पोताना
आत्माने अशुद्धपणे ज देखे छे पण शुद्ध आत्माने देखतो नथी तेने जैनशासननी खबर नथी; आत्माने कर्मना
संबंधवाळो ज देखनार जीव जैनशासननी बहार छे. जे जीव आत्माने कर्मना संबंधवाळो ज देखे छे तेने
वीतरागभावरूप जैनधर्म थतो नथी. अंर्तस्वभावनी द्रष्टि करीने जे पोताना आत्माने शुद्धपणे अनुभवे छे
तेने ज वीतरागभाव प्रगटे छे अने ते ज जैनधर्म छे. माटे आचार्यभगवान कहे छे के जे जीव पोताना
आत्माने कर्मना संबंधरहित एकाकार विज्ञानघनस्वभावपणे देखे छे ते समस्त जैनशासनने देखे छे.
जुओ आ जैनशासन! लोको बहारमां जैनशासन मानी बेठा छे, पण जैनशासन तो आत्माना
शुद्धस्वभावमां छे. घणा लोकोनी एवी भ्रमणा छे के जैनधर्म तो कर्मप्रधान छे. परंतु अहीं तो आचार्यदेव स्पष्ट
कहे छे के आत्माने कर्मना संबंधवाळो देखवो ते खरेखर जैनशासन नथी पण आत्माने कर्मना संबंधवगरनो
शुद्ध देखवो ते जैनशासन छे जैनधर्म कर्म प्रधान तो नथी पण कर्मना निमित्ते जीवनी पर्यायमां जे विकार थाय
ते विकारनी प्रधानता पण जैनधर्ममां नथी. जैनधर्ममां तो धु्रव ज्ञायक पवित्र आत्मस्वभावनी ज प्रधानता छे;
तेनी प्रधानतामां ज वीतरागता थाय छे. विकारनी के परनी प्रधानतामां वीतरागता थती नथी माटे तेनी
प्रधानता ते