Atmadharma magazine - Ank 111
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

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: पोष: : ४३:
जैनधर्म नथी. जे जीव पोताना ज्ञायक परमात्मतत्त्वने न समजे ते जीव जैनधर्मने पाम्यो नथी; अने जेणे
पोताना ज्ञायक परमात्मतत्त्वने जाण्युं छे ते समस्त जैनशासनना रहस्यने पामी चूक्यो छे. पोताना शुद्ध ज्ञायक
परम आत्मतत्त्वनी अनुभूति ते निश्चयथी समग्र जिनशासननी अनुभूति छे. कोई जीव भले जैनधर्ममां कहेलां
नवतत्त्वने व्यवहारथी मानतो होय, भले अगियार अंगने जाणतो होय, तथा भले जैनधर्ममां कहेली व्रतादिनी
क्रियाओ करतो होय, परंतु जो अंतरंगमां परद्रव्य अने परभावोथी रहित शुद्ध आत्माने ते न जाणतो होय तो
ते जैनशासनथी बहार छे, तेणे खरेखर जैनशासनने जाण्युं ज नथी.
‘भावप्राभृत’मां शिष्य पूछे छे के : जिनधर्मने उत्तम कह्यो तो ते धर्मनुं स्वरूप शुं छे? त्यारे तेना
उत्तरमां आचार्यदेव धर्मनुं स्वरूप बतावतां कहे छे के :–
पूयादिसु वयसहियं पुण्णं हि जिणेहिं सासणे भणियं।
मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो धम्मो।।
८३।।
जिनशासनने विषे जिनेन्द्रदेवे एम कह्युं छे के पूजादिकमां अने व्रतसहित होय तेमां तो पुण्य छे; अने
मोह–क्षोभरहित आत्माना परिणाम ते धर्म छे.
कोई लौकिक जनो तथा अन्यमति एम कहे छे के पूजा वगेरेमां तथा व्रत–क्रियासहित होय ते जैनधर्म
छे;–परंतु एम नथी. जुओ, जे जीव व्रत–पूजा वगेरेना शुभरागने धर्म माने छे तेने ‘लौकिक जन’ अने
‘अन्यमति’ कह्यो छे. जैनमतमां जिनेश्वर भगवाने व्रत–पूजादिना शुभभावने धर्म कह्यो नथी, पण आत्माना
वीतरागभावने ज धर्म कह्यो छे. ते वीतरागभाव केम थाय? के शुद्ध–आत्मस्वभावना अवलंबने ज
वीतरागभाव थाय छे; माटे जे जीव शुद्ध आत्माने देखे छे ते ज जिनशासनने देखे छे. सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र
पण शुद्ध आत्माना अवलंबनथी ज प्रगटे छे, तेथी सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप मोक्षमार्ग पण शुद्ध आत्माना
सेवनमां समाई जाय छे; तथा शुद्ध आत्माना अनुभवथी जे वीतरागभाव प्रगट्यो तेमां अहिंसा धर्म पण
आवी गयो अने उत्तम क्षमादि दस प्रकारनो धर्म पण तेमां आवी गयो. आ रीते जेटला प्रकारे जैनधर्मनुं कथन
छे ते बधा प्रकारो शुद्ध आत्माना अनुभवमां समाई जाय छे. तेथी जे शुद्धात्मानी अनुभूति ते समस्त
जिनशासननी अनुभूति छे.
अहो! आ एक गाथामां कुंदकुंदाचार्यदेवे जैनदर्शननुं अलौकिक रहस्य गोठवी दीधुं छे, जैनशासननो मर्म
शुं छे ते आ गाथामां बताव्यो छे.
आत्मा ज्ञानघनस्वभावी छे, ते कर्मना संबंधवगरनो छे. आवा आत्मस्वभावने द्रष्टिमां न लेतां कर्मना
संबंधवाळी द्रष्टिथी आत्माने लक्षमां लेवो ते रागबुद्धि छे, तेमां रागनी–अशुद्धतानी–उत्पत्ति थाय छे तेथी ते
जैनशासन नथी. भले शुभविकल्प थाय ने पुण्य बंधाय, पण ते जैनशासन नथी. आत्माने असंयोगी शुद्ध
ज्ञानघनस्वभावपणे द्रष्टिमां लेवो ते वीतरागीद्रष्टि छे ने ते द्रष्टिमां वीतरागतानी ज उत्पत्ति थाय छे तेथी ते ज
जैनशासन छे. जेनाथी रागनी उत्पत्ति थाय अने संसारमां रखडवानुं बने ते जैनशासन नथी. पण जेना
अवलंबनथी वीतरागतानी उत्पत्ति थाय ने भवभ्रमण मटे ते जैनशासन छे.
आत्मानी वर्तमान पर्यायमां अशुद्धता तथा कर्मनो संबंध छे पण तेना त्रिकाळी सहज स्वभावमां
अशुद्धता के कर्मनो संबंध नथी, त्रिकाळी सहज स्वभाव तो एकरूप विज्ञानघन छे.–आम आत्माना बंने
पडखांने जाणीने, त्रिकाळी स्वभावना महिमा तरफ वळीने आत्माने शुद्धपणे अनुभववो ते खरो अनेकान्त छे
अने ते ज जैनशासन छे. आवा शुद्ध आत्मानी अनुभूति ते ज सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान छे.
हुं विकारी अने कर्मना संबंधवाळो छुं–एम पर्यायद्रष्टिथी आत्माने लक्षमां लेवो ते तो रागनी उत्पत्तिनुं
कारण छे अने जो तेना आश्रये लाभ माने तो मिथ्यात्वनी उत्पत्ति थाय छे. माटे आत्माने कर्मना संबंधवाळो
ने विकारी देखवो ते जिनशासन नथी; बीजी रीते कहीए तो आत्माने पर्यायबुद्धिथी ज जोनार जीव मिथ्याद्रष्टि
छे. पर्यायमां विकार होवा छतां तेने महत्व न आपतां, द्रव्य–द्रष्टिथी शुद्ध आत्मानो अनुभव करवो ते
सम्यग्दर्शन अने जैनशासन छे. अंतरमां ज्ञानरूप भावश्रुत अने बाह्यमां भगवाननी वाणीरूप द्रव्यश्रुत–ते
बधानो सार ए छे के ज्ञानने अंर्तस्वभावमां वाळीने आत्माने शुद्ध अबद्धस्पृष्ट देखवो. जे एवा आत्माने
देखे तेणे ज जैनशासनने जाण्युं छे अने तेणे ज सर्व भावश्रुतज्ञान तथा द्रव्यश्रुत–ज्ञानने जाण्युं छे. जुदा जुदा
अनेक शास्त्रोमां अनेक प्रकारनी