Atmadharma magazine - Ank 111
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

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: ४४ : आत्मधर्म: १११
शैलीथी कथन कर्युं होय पण ते बधाय शास्त्रोनुं मूळ तात्पर्य तो पर्यायबुद्धि छोडावीने आवो शुद्ध आत्मा ज
बताववानुं छे. भगवाननी वाणीनां जेटलां कथन छे ते बधानो सार ए छे के शुद्ध आत्माने जाणीने तेनो
आश्रय करवो. जे जीव एवा शुद्ध आत्माने न जाणे ते बीजां गमे तेटलां शास्त्रो जाणतो होय ने व्रतादि पाळतो
होय तोपण तेणे जैनशासनने जाण्युं नथी.
जैनशासनमां कहेलो आत्मा ज्यां विकार वगरनो अने कर्मना पण संबंध वगरनो छे तो पछी आ स्थूळ
शरीरना आकारवाळो तो ते क्यांथी होय? आवा आत्माने जे जाणतो नथी अने जड शरीरना आकारथी
आत्माने ओळखे छे तेणे जैनशासनना आत्माने जाण्यो नथी. खरेखर भगवाननी वाणी केवो आत्मा
देखाडवामां निमित्त छे?–अबद्धस्पृष्ट एकरूप शुद्ध आत्माने भगवाननी वाणी देखाडे छे; एवा आत्माने जे
समजे छे ते ज जिनवाणीने खरेखर समज्यो छे. जे एवा अबद्धस्पृष्ट भूतार्थ आत्मस्वभावने न समजे ते
जिनवाणीने समज्यो नथी. कोई एम कहे के हुं भगवाननी वाणीने समज्यो छुं पण तेमां कहेला भावने (–
अबद्धस्पृष्ट शुद्ध आत्मस्वभावने) समज्यो नथी,–तो आचार्यदेव कहे छे के खरेखर ते जीव भगवाननी वाणीने
पण समज्यो नथी ने भगवाननी वाणी साथे धर्मनो निमित्त–नैमित्तिक संबंध तेने प्रगट्यो नथी. पोते पोताना
आत्मामां शुद्धआत्माना अनुभवरूप नैमित्तिकभाव प्रगट न कर्यो तेने भगवाननी वाणी धर्मनुं निमित्त पण न
थई, तेथी खरेखर ते भगवाननी वाणीने समज्यो ज नथी. भगवाननी वाणीने समज्यो एम क्यारे कहेवाय?
–के भगवाननी वाणीमां जेवो कह्यो तेवो भाव पोतामां प्रगट करे तो ज ते भगवाननी वाणीने समज्यो छे ने
ते ज जिनशासनमां आव्यो छे. जे जीव एवा आत्माने न जाणे ते जैनशासननी बहार छे.
बहारमां जड शरीरनी क्रियाने आत्मा करे अने तेनी क्रियाथी आत्माने धर्म थाय–एम जे देखे छे
(अर्थात् माने छे) तेने तो जैनशासननी गंध पण नथी. तथा कर्मने लीधे आत्माने विकार थाय के
विकारभावथी आत्माने धर्म थाय–ए वात पण जैनशासनमां नथी. आत्मा शुद्ध विज्ञानघन छे, ते बहारमां
शरीरादिनी क्रियाने तो करतो नथी, शरीरनी क्रियाथी तेने धर्म थतो नथी, कर्म तेने विकार करावतुं नथी तेम ज
शुभ–अशुभ विकारी भावथी तेने धर्म थतो नथी. पोताना शुद्ध विज्ञानघन स्वभावना आश्रये ज तेने
वीतरागभावरूप धर्म थाय छे. जे जीव आवा आत्माने अंतरमां नथी देखतो, अने कर्मना निमित्ते आत्मानी
अवस्थामां थता क्षणिक विकार जेटलो ज आत्माने देखे छे ते पण जनशासनने देखतो नथी; कर्म साथे निमित्त–
नैमित्तिक संबंध वगरनो जे सहज एकरूप शुद्धज्ञानस्वभावी आत्मा छे तेने शुद्धनयथी जे जीव देखे छे तेणे ज
जैनशासनने देख्युं छे अने ते ज सर्व शास्त्रोना सारने समज्यो छे.
(१) जैनशासनमां कर्म साथेना निमित्त–नैमित्तिक संबंधनुं ज्ञान तो करावे छे परंतु जीवने त्यां ज रोकी
राखवानुं तेनुं प्रयोजन नथी, पण ते निमित्त–नैमित्तिक संबंधनी द्रष्टि तोडावीने असंयोगी आत्मस्वभावनी
द्रष्टि करावे छे. माटे कह्युं के जे जीव कर्मना संबंधरहित आत्माने देखे छे ते सर्व जैनशासनने देखे छे.
(२) मनुष्य, देव वगेरे पर्यायोथी जोतां अन्य–अन्यपणुं होवा छतां आत्माने तेना ज्ञायकस्वभावथी
एकाकार–स्वरूपे देखवो ते ज जैनशासननो सार छे. पर्यायद्रष्टिए आत्मामां अनेरा–अनेरापणुं थाय छे
खरुं, अने शास्त्रमां तेनुं पण ज्ञान करावे छे, परंतु ते पर्याय जेटलो ज आत्मा बताववानो जैनशास्त्रोनो
आशय नथी, पण एकरूप ज्ञायकबिंब आत्मा बताववो ते शास्त्रोनो सार छे अने एवा आत्माना
अनुभवथी ज सम्यग्ज्ञान थाय छे. जेणे आवा आत्मानो अनुभव कर्यो तेणे द्रव्यश्रुतरूप तेम ज
भावश्रुतरूप जैनशासनने जाण्युं.
(३) आत्मानी अवस्थामां ज्ञान–दर्शन–वीर्य वगेरेनुं ओछा वधतापणुं थाय छे, पण धु्रवस्वभावथी
जोतां आत्मा हीनाधिकतारहित एकरूप निश्चल छे. पर्यायनी हीनाधिकताना प्रकारोनुं शास्त्रे ज्ञान कराव्युं छे
पण तेमां ज अटकाववानो शास्त्रनो आशय नथी, केमके पर्यायनी अनेकताना आश्रये रोकातां एकरूप शुद्ध
आत्मानुं स्वरूप अनुभवमां आवतुं नथी. शास्त्रोनो आशय तो पर्यायनो आश्रय छोडावीने नियत–एकरूप
धु्रव आत्मस्वभावनुं अवलंबन कराववानो छे, तेना अवलंबनथी ज मोक्षमार्ग सधाय छे. एवा
आत्मस्वभावनुं अवलंबन लईने अनुभव करवो ते जैनशासननो अनुभव छे. पर्यायना अनेक भेदोनी द्रष्टि
छोडीने अभेदद्रष्टिथी शुद्ध आत्मानो अनुभव करवो–ते शास्त्रोनो अभिप्राय छे.