Atmadharma magazine - Ank 111
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

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: पोष: २४७९ : ४५:
(४) भगवानना शास्त्रमां ज्ञान–दर्शन–चारित्र ईत्यादि गुणभेदथी आत्मानुं कथन कर्युं छे, पण त्यां ते
भेदना विकल्पमां जीवने रोकवानो शास्त्रनो आशय नथी; भेदनुं अवलंबन छोडावीने अभेद आत्मस्वभाव
बताववो ते ज शास्त्रोनो आशय छे. भेदना आश्रये तो रागनी उत्पत्ति थाय छे ने राग ते जैनशासन नथी;
माटे जे जीव भेदना लक्षे थता विकल्पथी लाभ मानीने तेना आश्रयमां रोकाय ने आत्माना अभेद स्वभावनो
अनुभव न करे तो ते जैनशासनने जाणतो नथी. अनंत गुणथी अभेद आत्मामां भेदनो विकल्प छोडीने,
अभेदस्वरूपे तेने लक्षमां लईने तेना वलणमां एकाग्र थवाथी निर्विकल्पता थाय छे, आ ज बधा तीर्थंकरोनी
वाणीनो सार छे ने आ ज जनशासन छे.
(प) आत्मा क्षणिक विकारथी असंयुक्त छे; तेनी अवस्थामां क्षणिक रागादिभाव थाय छे पण तेनो
अनुभव करवो ते जैनशासन नथी. स्वभावद्रष्टिथी जोतां आत्मामां विकार छे ज नहि. क्षणिक विकारथी
असंयुक्त एवा शुद्ध चैतन्य–घनस्वरूपे आत्माने अनुभववो ते ज अनंता सर्वज्ञ अरिहंतपरमात्माओनुं हार्द
अने संतोनुं हृदय छे; बार अंग ने चौदपूर्वनी रचनामां जे कांई कह्युं छे तेनो सार ए ज छे. निमित्त, राग के
भेदनां कथनो भले होय, तेनुं ज्ञान पण भले हो, परंतु ए बधाने जाणीने करवुं शुं?... के पोताना आत्माने
परद्रव्यो अने परभावोथी भिन्न अभेद ज्ञानस्वभावे अनुभववो, एवा आत्माना अनुभवथी ज पर्यायमां
शुद्धता थाय छे. जे जीव ए प्रमाणे शुद्ध आत्माने द्रष्टिमां लईने अनुभवे ते ज सर्व संतोना हृदयने अने
शास्त्रोना रहस्यने समज्यो छे.
जुओ, आ शुद्ध आत्माना अनुभवनी वीतरागी वार्ता! वीतरागी देव–गुरु–शास्त्र सिवाय आवी वात
कोण करी शके? वीतरागी अनुभवनी आवी वार्ता सांभळवा जे जीव प्रेमथी ऊभो छे तेने जैनशासनना देव–
गुरु–शास्त्र उपरनी श्रद्धा छे तेम ज तेमना विनय अने बहुमाननो शुभराग पण छे, परंतु ते कांई जैनदर्शननो
सार नथी, ते तो बहिर्मुख रागभाव छे. अंतरमां स्वसन्मुख थईने देव–गुरु–शास्त्रे जेवो कह्यो तेवा आत्मानो
रागरहित अनुभव करवो ते ज जैनशासननो सार छे.
जुओ, आ अपूर्व कल्याणनी वात छे. आ कोई साधारण वात नथी, पण जे समजतां अनादिकाळना
भवभ्रमणनो अंत आवी जाय–एवी आ वात छे. आत्मानी दरकार करीने आ वात समजवा जेवी छे. बहारनी
क्रियाथी अने पुण्यथी आत्माने लाभ थाय–एम मानवानी वात तो घणी दूर रही, अहीं तो कहे छे के हे जीव! तुं
ए बहारनी क्रियाने न जो, पुण्यने पण न जो, पण अंतरमां ज्ञानमूर्ति आत्माने जो. ‘पुण्य ते हुं छुं’–एवी द्रष्टि
काढि नांख, ने ‘हुं ज्ञायकभाव छुं’–एवी द्रष्टि कर. देहादि बहारनी क्रियाथी तेम ज पुण्यथी पण पार एवा
ज्ञायक–स्वभावी आत्माने अंतरमां अवलोकवो ते ज जैनदर्शन छे. ए सिवाय व्रत अने पूजादिकने लोको
जैनदर्शन कहे छे पण ते खरेखर जैनदर्शन नथी. व्रत ने पूजादिकमां तो फक्त शुभराग छे ने जैनधर्म तो
वीतरागभावस्वरूप छे.
प्रश्न:– आवो जैनधर्म कर्यो केटलाए?
उत्तर:– अरे भाई! तारे तारुं करवुं छे के बीजानुं? पहेलांं तुं पोते तो पोताना आत्मामां समज, अने
जैन था, पछी तने बीजानी खबर पडशे. पोते पोताना आत्माने समजीने हित करी लेवा माटेनी आ वात छे.
बाकी आवा वीतरागी जैनधर्मनुं सेवन करी करीने ज पूर्वे अनंता जीवो मुक्ति पाम्या छे; अत्यारे दुनियामां
असंख्य जीवो आवो धर्म सेवी रह्या छे; महाविदेह क्षेत्रमां तो आवा धर्मनी धीकती पेढी चाली रही छे, त्यां
तीर्थंकरो साक्षात् विचरे छे. तेमनी ध्वनिमां आवा धर्मनो धोध वहे छे, गणधरो ते झीले छे, ईन्द्रो तेने आदरे
छे, चक्रवर्ती वगेरे तेनुं सेवन करे छे; तेम ज भविष्यमां पण अनंत जीवो आवो धर्म प्रगट करीने मुक्ति पामशे.
पण तेमां पोताने शुं? पोताने तो पोताना आत्मामां जोवानुं छे. बीजा जीवो मुक्ति पामे तेथी कांई आ जीवनुं
हित थई जतुं नथी अने बीजा जीवो संसारमां रखडे तेथी कांई आ जीवनुं हित अटकतुं नथी. पोते ज्यारे
पोताना आत्माने समजे त्यारे पोतानुं हित थाय छे. ए रीते पोताना आत्माने माटेनी आ वात छे, बाकी आ
तत्त्व तो त्रणेकाळे दुर्लभ छे ने ते समजनारा जीवो पण विरला ज होय छे. माटे पोते समजीने पोताना
आत्मानुं हित साधी लेवुं.
–श्री समयसार गा. १५ उपर
पू. गुरुदेवश्रीना प्रवचनमांथी.